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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
का प्रामाण्य वस्तुविषयक है । यह लौकिक अविसंवादकता रूप प्रामाण्य है,क्योंकि लोक में प्रतिज्ञात अर्थ को प्राप्त कराता हुआ संवादक पुरुष प्रमाण कहलाता है उसी प्रकार यहां भी अर्थप्रापकता रूप अविसंवादकता से प्रत्यक्ष एवं अनुमान ये दोनों प्रमाण हैं । १४१
क्षणिक -अर्थ का ज्ञान प्राप्तिकाल तक अवस्थित नहीं रहता है ,किन्तु इससे उसकी प्रापकता में शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थ के प्रदर्शकत्व के अतिरिक्त उसका अवस्थान या प्रापकता असंभव है। यह भी शंका नहीं करनी चाहिए कि अन्य ज्ञानान्तर की प्राप्ति में सन्निकृष्ट (साधकतम) होने से वही क्षणिक-ज्ञान प्रापक है । यद्यपि अनेक ज्ञान क्षणों से प्रवृत्ति होने पर अर्थप्राप्ति होती है तथापि दृश्यमान अर्थप्रदर्शकत्व ही ज्ञान की प्रापकता है,४२ अन्य नहीं । वह अर्थप्रदर्शकता प्रथम ज्ञान क्षण में सम्पन्न हो जाती है।
प्रदर्शित एवं प्रापकत्व लक्षण वाले प्रामाण्य के स्वीकार करने पर पीतशंख आदि को ग्रहण करने वाले ज्ञानों में प्रामाण्य की प्रसक्ति नहीं होती । पीतशंख आदि के ग्राहक ज्ञान प्रदर्शित अर्थ के प्रापक नहीं होते हैं । जिस देश,काल एवं आकार वाली वस्तु उन ज्ञानों के द्वारा प्रदर्शित होती है वैसे देश, काल एवं आकार वाली वस्तु प्राप्त नहीं होती है तथा जैसे देश ,काल एवं आकार वाली वस्तु प्राप्त होती है.वैसी प्रदर्शित नहीं होती। देश.काल एवं आकार आदि के भेद से वस्तु का भेद निश्चित है। अतः पीतशंख आदि ज्ञानों में प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता नहीं होने से वे अप्रमाण हैं। इसी प्रकार जलादि के प्रदर्शक ज्ञान में मरीचि आदि अन्य वस्तु की प्राप्ति देखी जाती है । यदि वहाँ प्रदर्शित अर्थ को प्रापक मानकर उसे प्रमाण समझा जाय तो कुछ भी अप्रमाण नहीं रहेगा।४३
प्रत्यक्ष एवं अनुमान इन दोनों प्रमाणों के अतिरिक्त कोई ज्ञान नियत प्रदर्शित अर्थ का प्रापक नहीं होता । स्वलक्षण एवं सामान्य लक्षण में साधारण अनियत अर्थ असत्त्व होने से प्राप्त नही किया जा सकता। अतः प्रदर्शितार्थ प्रापक रूप में उसका कोई प्रामाण्य नहीं होता।१४० शब्दादि अनियतार्थ के प्रदर्शक होते हैं,क्योंकि वे साक्षात् अथवा परम्परा में प्रतिपाद्य अर्थ से उत्पन्न नहीं होते हैं।
इसलिए यह निश्चित हुआ कि जिसमें प्रापणशक्ति का स्वभाव है,वह अविसंवादक है तथा वह प्रमाण है, अर्थ के अविनाभाव से उत्पन्न प्रमाण की प्रापणशक्ति का निश्चय निर्विकल्प के पश्चाद्भावी विकल्प द्वारा किया जाता है,क्योंकि जिस अर्थ से दर्शन या निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उत्पन्न १४१. तुलनीय–लोके च पूर्वमुपदर्शितार्थ प्रापयन् संवादक उच्यते । तदज्ञानमपि स्वयं प्रदर्शितमर्थ प्रापयत्
संवादकमुच्यते ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ०१० १४२. तुलनीय प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव ।-न्यायविन्दुटीका १.१, पृ०१० १४३. तुलनीय-तस्मादन्याकारवस्तुप्राहि नाकारान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम् । यथा पीतशंखग्राहि शुक्ले शंखे देशान्तरग्राहि
च न देशान्तरस्थे प्रमाणम्। कालान्तरयुक्तग्राहि च न कालान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम्। न्यायबिन्दुटीका १.१, पृ० १४४. तुलनीय-आभ्यां प्रमाणाभ्यामन्येन च ज्ञानेन दर्शितोऽर्थः कश्चिदत्यन्तविपर्यस्तः यथा मरीचिकासु जलम् । स चासत्त्वात्
प्राप्तमशक्यः कचिदनियतो भावाभावयोः यथा संशयार्थः न च भावाभावाभ्यां युक्तोऽयों जगत्यस्ति । ततः प्राप्तुमशक्यस्तादृशः ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ. १४
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