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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
प्रत्यक्ष एवं अनुमान ये दोनों तथाभूत अर्थ के प्रदर्शक हैं, अतः इन दोनों में अविसंवादकता रूप प्रमाण का लक्षण विद्यमान है । प्रत्यक्ष से अर्थक्रिया का साधन दृष्ट रूप में ज्ञात अथवा प्रदर्शित होता है तथा अनुमान द्वारा वह दृष्टलिङ्ग (हेतु) से अव्यभिचरित रूप में अध्यवसित होता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष एवं अनुमान द्वारा अर्थक्रिया के साधन रूप अर्थ को प्रदर्शित किया जाता है । वही अर्थ की प्रापकता है । अर्थ की प्रापकता ही अविसंवादकता है एवं वही प्रमाण का लक्षण है । १२९ प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा प्रदर्शित अर्थ में प्रवृत्ति करने पर अर्थ प्राप्ति होती ही है। अतः अर्थप्रदर्शकत्व के अतिरिक्त प्रापकता नहीं है । वह प्रापकता शक्तिरूप है,यथा-"प्रापण शक्ति ही ज्ञान का प्रामाण्य है,” और वही प्रापकता है । अन्यथा ज्ञानान्तर से उसकी प्रापकता की व्यवस्था करने पर प्रमाण को प्रवर्तक शक्ति वाला नहीं कहा जा सकता।
यद्यपि प्रत्यक्ष वस्तुक्षण ग्राही होता है और उसका ग्राहकत्व ही उसकी प्रदर्शकता है । वस्तु के क्षणिक होने के कारण दृष्ट क्षण की प्राप्ति नहीं होती ,उस क्षण की सन्तान ही प्राप्त होती है । इस प्रकार प्रत्यक्ष द्वारा क्षण -सन्तान का अध्यवसाय किया जाता है और वही प्रत्यक्ष का अर्थ प्रदर्शक व्यापार है। अनुमान द्वारा वस्तु का ग्रहण नहीं होता । अतः उसका अर्थ प्रापक होना संभव प्रतीत नहीं होता तथापि अपने आकार वाली बाह्य वस्तु के अध्यवसाय से पुरुष द्वारा प्रवृत्ति करने में निमित्त बनने के कारण अनुमान को अर्थ का प्रापक कहा जाता है। ____ अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष का ग्राह्य विषय जो क्षण है वह निवृत्त हो जाने के कारण प्राप्त नहीं होता, तथापि प्रत्यक्ष से उस क्षण की सन्तान का अध्यवसाय होता है, अर्थात् प्रवृत्तिपूर्वक प्राप्ति का विषय सन्तान है । वह विषय ही प्रत्यक्ष की अथवा प्रदर्शित अर्थ की प्रांपकता है तथा वही इसका प्रामाण्य है। अनुमान के द्वारा तो आरोपित वस्तु अथवा स्वाकार का ग्रहण होता है,वे दोनों अवस्तु रूप होते हैं । अतः वे प्रवृत्ति के विषय नहीं होते,अपितु बाह्य वस्तुओं के अभेद अध्यवसाय से वस्तु में ही अनुमान की प्रवर्तकता एवं प्रापकता देखी जाती है । इस प्रकार अनुमान का ग्राह्य विषय अनर्थ है, किन्तु प्राप्य विषय बाह्य है जो स्वाकार के अभेद अध्यवसाय रूप होता है । इस प्रकार अनुमान का अध्यवसेय विषय वस्तुरूप सिद्ध होता है । वह विषय प्रदर्शितार्थप्रापक होता है, अतः अनुमान भी प्रमाण है ।१४° कहा गया है-"उस विकल्प से भी वस्तुक्षण का अध्यवसाय होने से वस्तु में ही प्रवृत्ति होती है,प्रवृत्ति होने पर प्रत्यक्ष से उसका योगक्षेम अभिन्न हो जाता है ।”
प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा अर्थ को जानकर प्रवर्तमान पुरुष अर्थक्रिया में कभी विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है। प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों का परिच्छेद सन्तान विषयक अध्यवसाय है,तथा दोनों १३९. तुलनीय-प्रत्यक्ष प्रतिभासमानं नियतमर्थ दर्शयति । अनुमानं च लिङ्गसम्बद्धं नियतमर्थ दर्शयति । अत एते नियतस्यार्थस्य प्रदर्शके। तेन ते प्रमाणे । नान्यद् विज्ञानम्। प्राप्तुं शक्यमर्थमादर्शयत् प्रापकम्। प्रापकत्वाच्च
प्रमाणम् । न्यायबिन्दुटीका १.१, पृ० १२ १४०. धर्मोत्तर मत के लिए द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,३८
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