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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
क्या प्रदर्शित अर्थ की प्राप्ति कराना प्रमाण की अविसंवादकता है, अथवा प्राप्तियोग्य अर्थ को प्रदर्शित करना उसकी अविसंवादकता है, अथवा तो अविचलित अर्थ को विषय करना अविसंवादकता है ?
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यदि प्रदर्शित अर्थ की प्राप्ति कराना अविसंवादकता है तो यह लक्षण अयुक्त है, क्योंकि जल बुदबुदे के समान क्षणिक पदार्थ प्राप्तिकाल में नष्ट हो जाता है, अतः प्रदर्शित अर्थ की प्राप्ति नहीं होने से ज्ञान में अविसंवादकता नहीं हो सकती । द्वितीय विकल्प में यदि प्राप्तियोग्य अर्थ को प्रदर्शित करना ज्ञान की अविसंवादकता है तो ग्रह, नक्षत्र आदि विषयों का ज्ञान अप्रमाण सिद्ध होगा, क्योंकि वे दृष्ट होने पर भी प्राप्त नहीं होते । यदि अविसंवाद का अर्थ विषय का अविचलन है तो उसकी अविचलित विषयता को कैसे जानते हैं ? यदि ज्ञानान्तर से उस विषय का निराकरण नहीं होने के कारण उसे अविचलित या विसंवादरहित कहा जाता है तो यह जैनमत में भी इष्ट है । १३५
यहां पर सिद्धर्षिगणि ने प्रदर्शितार्थप्रापकता एवं प्रापणयोग्य अर्थ की प्रदर्शकता के रूप में अविसंवाद लक्षण का खण्डन किया है तथा उसे अविचलितार्थ विषयता के रूप में स्वीकार किया है जो अकलङ्क के द्वारा प्रस्तुत प्रमाणान्तर से अबाधित एवं पूर्वापर विरोध से रहित अविसंवादी ज्ञान के लक्षण से साम्य रखता है ।'
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अभयदेवसूरि द्वारा बौद्ध प्रमाण- लक्षण का उपस्थापन एवं खण्डन- अभयदेवसूरि ने सिद्धसेन के सन्मतितर्कप्रकरण की तत्त्वबोधविधायिनी टीका में धर्मकीर्ति के प्रमाण लक्षण को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित कर उसका विस्तृत खण्डन किया है। वे धर्मकीर्ति के लक्षण को उपस्थापित करते समय धर्मोत्तर आदि बौद्धदार्शनिकों की व्याख्याओं का भी उपयोग करते हैं। यहां उनके मतानुसार पूर्व पक्ष को रखने के अनन्तर खण्डन प्रस्तुत किया जा रहा है 1
पूर्वपक्ष का उपस्थापन' १३७ ' - 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" वचन के अनुसार ज्ञान की अविसंवादकता प्रमाण का लक्षण है। अविसंवादकता का अर्थ है अर्थक्रिया में साधक अर्थ की प्रदर्शकता । यह अर्थप्रदर्शकता अर्थप्राप्ति के लिए प्रवृत्त कराने में हेतुभूत होती है। क्योंकि अर्थक्रियार्थी पुरुष अर्थक्रिया में समर्थ अर्थ को प्राप्त करने के लिए प्रमाण अथवा अप्रमाण का अन्वेषण करता है । अर्थक्रिया को सम्पन्न करने वाला जो ज्ञान अर्थ प्रदर्शक होता है, उसी का अर्थक्रियार्थी पुरुष के द्वारा अन्वेषण किया जाता है । १३८
१३५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क
१३६. प्रमाणान्तराबाधनं पूर्वापराविरोधश्चाविसंवादः । - लघीयस्त्रयवृत्ति, पृ० १४.२१
१३७. मूल पाठ के लिए द्रष्टव्य, परिशिष्ट- क
१३८. तुलनीय - अर्थक्रियार्थिभिश्चार्थक्रियासमर्थं वस्तुप्राप्तिनिमित्तं ज्ञानं मृग्यते । यच्च तैर्मृग्यते तदेव शास्त्रे विचार्यते । ततोऽर्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शकं सम्यग्ज्ञानम् । न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ० १६
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