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________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि। । प्रतिबन्धात्तदाभासशून्ययोरप्यवञ्चनम् ॥१३१ लिङ्गबुद्धि (हेतु के ज्ञान) और लिङ्गिबुद्धि (साध्य के ज्ञान) में वस्तु का साक्षात् प्रतिभास न होने पर भी परम्परा से वस्तु के साथ सम्बन्ध होने के कारण उनसे उत्पन्न अनुमान में संवादकता है। विद्यानन्द इसका भी प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि यदि अनुमान में सर्वदा संवादकता विद्यमान रहती है तो प्रत्यक्ष की तरह उसे भी अभ्रान्त मानना चाहिए,किन्तु बौद्धों ने प्रत्यक्ष को अभ्रान्त माना है, और अनुमान को प्रान्त माना है ।१३२ यदि अनुमान प्रान्त है तो वह संवादक कैसे हो सकता है और संवादकता के अभाव में वह प्रमाण भी नहीं हो सकता है। यदि अनुमान का आलम्बन प्रत्यय 'सामान्य' मिथ्या है तो प्राप्त (स्वलक्षण) भी मिथ्या होगा और यदि अनुमान द्वारा प्राप्य विषय वास्तविक है, तो उसके आलम्बन को भी वास्तविक मानना चाहिए।१२२ इस प्रकार विद्यानन्द ने प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों प्रमाणों में बौद्धों के अविसंवादकत्व लक्षण को अनुपपन्न सिद्ध किया है। इस अनुपपन्नता प्रतिपादन का मूलाधार निर्धान्त तथा निश्चयात्मक ज्ञान है जबकि बौद्ध असत् से भी अर्थक्रियासिद्धि संभव होने पर इसकी प्रामाणिकता स्वीकार करते हैं। इसी के लिए दीपप्रभा, मणिप्रभा का दृष्टान्त प्रचलित है। प्रमाणव्यवस्था मणिप्रभा की भांति है । प्रान्त, मिथ्या या असम्यग्ज्ञान उनके अनुसार दीपप्रभा के समान है। विद्यानन्द ने तत्वार्थश्लोकवार्तिक में,बौद्धों द्वारा अभिमत अविसंवादी ज्ञान को स्वप्नज्ञान में भी सिद्ध कर बौद्धों के प्रमाण- लक्षण को अनुपपन्न बतलाया है। विद्यानन्द कहते हैं कि अविसंवाद का अर्थ यदि आकांक्षा-निवृत्ति है तो वह स्वप्नज्ञान में भी संभव है,क्योंकि स्वप्न में भी परितोष का अनुभव होता है। अतः स्वप्नज्ञान को भी प्रमाण स्वीकार करना होगा । यदि स्वप्नज्ञान में अर्थक्रियास्थिति रूप अविसंवाद नहीं है तो शब्द ज्ञान में भी अर्थक्रिया स्थिति संभव नहीं । शब्द ज्ञान में यदि अभिप्राय निवेदन से अर्थक्रियास्थिति रूप अविसंवाद माना जाता है तो वह अभिप्रायनिवेदन तो स्वप्नादि ज्ञानों में भी देखा जाता है । अतः उनको भी प्रमाण मानने का प्रसंग आता है ।१३४ ___इस प्रकार बौद्धमत में अविसंवाद को प्रमाण लक्षण मानना विद्यानन्द के अनुसारकथमपि संभव नहीं है। सिद्धर्षिगणि-सिद्धर्षिगणि ने न्यायावतारविवृति में धर्मकीर्ति द्वारा प्रमाणलक्षण में प्रयुक्त अविसंवादक शब्द के तीन अर्थों को प्रस्तुत कर प्रत्येक का खण्डन किया है । वे बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि १३१.(आ) द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क (ब) प्रमाणवार्तिक, २.८२ १३२. प्रान्तं ह्यनुमानं स्वप्रतिभासेऽनऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात्।-न्यायबिन्दुटीका, पृ० ४० १३३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क १३४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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