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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
यदि बौद्ध दार्शनिक व्यवसायात्मकता के साथ स्वविषयोपदर्शकता की व्याप्ति नहीं मानकर व्यवसायजनकता के साथ मानते हैं तो विद्यानन्द उसका भी प्रतीकार करते हुए कहते हैं कि जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्वयं व्यवसाय रूप नहीं है वह व्यवसायजनक नहीं हो सकता । १२९
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बौद्धों के अनुसार अनुमान संवृतिसत् सामान्यलक्षण को विषय करता है, फिर भी स्वलक्षण की प्राप्ति में कारण होने से उसको प्रमाण माना गया है । यथा किसी पुरुष को प्रदीपप्रभा में मणि का ज्ञान हुआ और किसी को मणिप्रभा में मणि का ज्ञान हुआ, उन दोनों का ज्ञान समानरूप से मिथ्या है, फिर भी जिसको मणिप्रभा में मणि का ज्ञान हुआ है, उसको मणि की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार अनुमान और अनुमानाभास दोनों के अयथार्थ होने पर भी एक अर्थक्रिया का साधक होता है, और दूसरा उसका साधक नहीं होता है। अनुमान से परम्परया स्वलक्षण की प्राप्ति होती है और अनुमाना भास से नहीं होती है । अतः अनुमान प्रमाण है और अनुमानाभास अप्रमाण है । अर्थक्रिया की सिद्धि के लिए पूर्वतः तत्त्वनिश्चय न होने पर भी अनुमान में प्रमाणशीलता संभव है ।
विद्यानन्द कहते हैं कि अनुमान को प्रमाण मानने हेतु जो मणिप्रभा का दृष्टान्त दिया गया है, वह बौद्धों के मत काही विघटन करने वाला है। मणिप्रभादर्शन को बौद्धों ने संवादक माना है, और संवादक होने से वह प्रमाण भी है, किन्तु इसको प्रत्यक्ष और अनुमान से अतिरिक्त तृतीय प्रमाण मानना पड़ेगा, क्योंकि मणिप्रभादर्शन शुक्तिका में रजत ज्ञान की भांति विसंवादक होने से प्रत्यक्षाभास है अतः उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं हो सकता । यदि इसको एकत्व अध्यवसाय के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं तो शुक्तिका में रजत का ज्ञान, अवस्थित वृक्षों में गतिशीलता का ज्ञान आदि भ्रान्तज्ञानों को भी प्रमाण मानना होगा । मणिप्रभादर्शन अनुमान भी नहीं है, क्योंकि उसमें लिङ्ग और लिङ्गी के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है । बिना लिङ्ग लिङ्गिज्ञान के अनुमान नहीं हो सकता । मणिप्रभा दर्शन दृष्टान्त है, दान्त नहीं । फिर भी मणिप्रभादर्शन को अनुमान माना जाय तो दृष्टान्त और दान्त के एक हो जाने से किसके द्वारा किसकी सिद्धि होगी ? और तब क्षणिकत्वादि साधक अनुमान प्रमाण भी कैसे बनेगा । कदाचित् संवाद पाये जाने के कारण मणिप्रभादर्शन को प्रमाण मानना ठीक नहीं है, क्योंकि कदाचित् संवाद तो मिथ्याज्ञान में भी पाया जाता है। कभी कभी मिथ्याज्ञान से भी अर्थ की प्राप्ति हो जाती है। अतः इस प्रकार उसे भी प्रमाण मानना चाहिए अन्यथा मणिप्रभादर्शन को तथा अनुमान को भी विसंवादी होने से प्रमाण नहीं माना जा सकता । १३०
बौद्ध कहते हैं कि मिथ्याज्ञान में संवाद कभी कभी ही पाया जाता है, किन्तु अनुमान में संवाद सदा पाया जाता है । यद्यपि अनुमान अवस्तुभूत सामान्यलक्षण को विषय करता है, फिर भी परम्परा से वस्तु (स्वलक्षण) की प्राप्ति का कारण होने से वह संवादक है। कहा भी है
१२९. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, तृतीय अध्याय में बौद्ध- प्रत्यक्ष का विद्यानन्द कृत खण्डन, पृ. १५३-१६१ १३०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट क
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