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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
तज्जातीय ज्ञान में होता है या अतज्जातीय ज्ञान में होता है । क्षणिकवादियों के मत में तो ज्ञान उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है अतः उसमें पुनः पुनः संवाद का अनुभव होना अशक्य है । यदि संतान की अपेक्षा से अभ्यास का होना शक्य है तो संतान अवस्तुरूप है । अतः उसमें भी अभ्यास का होना अनुपपन्न है । यदि तज्जातीयज्ञान में पुनः पुनः संवाद का अनुभव होता है तो जाति का निराकरण करने वाले बौद्धों के मत में यह संभव नहीं है ।१२६ ।।
आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा कृति में यह बलवत्तररूप में प्रतिपादित किया है कि व्यवसायात्मकता के अभाव में ज्ञान अविसंवादक नहीं होता । बौद्ध स्वसंवेदन, इन्द्रिय,मानस एवं योगज भेद से प्रत्यक्ष के चार प्रकार मानते हैं । विद्यानन्द के अनुसार ये चारों प्रकार के प्रत्यक्ष अप्रमाण हैं ,क्योंकि अव्यवसायात्मक होने के कारण इनमें अविसंवादकता नहीं है । आचार्य विद्यानन्द ने धर्मोत्तर के मत को पूर्वपक्ष मे उपस्थापित भी किया है, यथा
_ 'सम्यग्ज्ञान अर्थात् प्रमाण की व्याप्ति अविसंवादकता के साथ है । अविसंवादकता के अभाव में सम्यग्ज्ञान अथवा प्रमाण का अभाव रहता है। अविसंवादकता भी अर्थप्रापकता से व्याप्त है । जो ज्ञान अर्थप्रापक नहीं होता वह अविसंवादी नहीं होता। अर्थप्रापकता भी प्रवर्तकत्व से व्याप्त है। अप्रवर्तक ज्ञान अर्थप्रापक नहीं होता। प्रवर्तकता भी स्वविषयोपदर्शकता से व्याप्त है । स्वविषय के उपदर्शक ज्ञान में प्रवर्तक का व्यवहार सिद्ध होता है । ज्ञान पुरुष के हाथ पकड़कर उसे प्रवृत नहीं करता । अपने विषय का उपदर्शक होने से ही ज्ञान को प्रवर्तक कहा जाता है तथा जो ज्ञान प्रवर्तक होता है वही अर्थप्रापक होता है एवं जो ज्ञान अर्थप्रापक होता है वही अविसंवादक होने से सम्यग्ज्ञान होता है अर्थात् प्रमाण होता है । इससे भिन्न ज्ञान संशयादि ज्ञान के समान मिथ्या होता है । १२७
धर्मोत्तर के उपर्युक्त मत का विद्यानन्द ने विस्तृत खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि स्वसंवेदन, इन्द्रिय,मन एवं योगी इन चार प्रकार के बौद्ध प्रत्यक्ष में सम्यग्ज्ञानत्व या प्रमाणत्व का व्यवस्थापन नहीं हो सकता ,क्योंकि इनमें स्वविषयोपदर्शकता सिद्ध नहीं है । ये अपने विषय को प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं हैं । इनसे नीलादि विषयों का उपदर्शन यदि हो भी जाय तब भी उसकी क्षणभंगता का उपदर्शन नहीं हो पाता । वस्तुतः जो ज्ञान अव्यवसायात्मक है वह अपने विषय का उपदर्शक नहीं हो सकता । जिस प्रकार चलते हुए पुरुष को तिनके का स्पर्श अव्यवसायात्मक होता है उसी प्रकार बौद्धों को अभिमत प्रत्यक्ष अथवा दर्शन भी अव्यवसायात्मक होता है । अव्यवसायात्मक होने से वह स्वविषयोपदर्शक नहीं हो सकता तथा स्वविषयोपदर्शक नहीं होने से वह प्रवर्तक, अर्थप्रापक अथवा अविसंवादक नहीं हो सकता । अविसंवादकता के अभाव में उसे सम्यग्ज्ञान अथवा प्रमाण नहीं कहा जा सकता । व्यवसायात्मक रूप व्यापक के अभाव में उसमें व्याप्य स्वविषयोपदर्शकता का अनुभव नहीं होता।१२८ १२६. अष्टसहस्री (ज्ञा.) भाग १, पृ० २११-२१३ १२७. द्रष्टव्य, (१) परिशिष्ट - क (२) तुलनीय, धर्मोत्तर, न्यायबिन्दुटीका, १.१ १२८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क
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