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________________ १२२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अभीष्ट है,इन्द्रियज्ञान में वे किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं मानते हैं । ४ धर्मकीर्ति ने इन्द्रियज्ञान में भ्रान्ति को बलपूर्वक सिद्ध किया है । यही कारण है कि उन्होंने निर्विकल्पक के साथ प्रत्यक्ष का अभ्रान्त होना भी आवश्यक माना है। प्रत्यक्ष की प्रक्रिया धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में प्रतिपादित किया है कि सब ओर से चिन्तन अथवा विकल्प को समेट कर शान्त चित्त से युक्त पुरुष चक्षु से रूप को देखता है तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । ५ धर्मकीर्ति यहां प्रतिपादित करना चाहते हैं कि विकल्पावस्था में किया गया इन्द्रियजन्य ज्ञान सविकल्पक होने से प्रत्यक्ष कोटि मे नहीं आता । अतः जब भी इन्द्रियादि प्रत्यक्ष-ज्ञान करना हो तो हमें अपने आपको समस्त विकल्पावस्थाओं से परे होना चाहिए। विमूढ पुरुष को भ्रम – निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर-क्षण में विकल्प का उदय होता है। निर्विकल्प एवं सविकल्प अवस्थाओं में मन की अव्यवधान पूर्वक युगपद् वृत्ति जानकर विमूढ ज्ञाता पुरुष सविकल्प एवं निर्विकल्प अवस्थाओं में भेद नहीं कर पाता। अविकल्प एवं सविकल्प अवस्थाओं के शीघ्र होने के कारण भी कभी उसे दोनों में एकत्व का ज्ञान होता है।८६ जिस प्रकार अलात (अग्नि युक्त जलती लकडी) को घुमाये जाने पर उसमें चक्र का भ्रम हो जाताहै उसी प्रकार विमूढ प्रतिपत्ता को निर्विकल्प एवं सविकल्प ज्ञान में एकता का भास होता है । वस्तुतः निर्विकल्पक एवं सविकल्पक दोनों अवस्थाएं भिन्न भिन्न हैं। निर्विकल्पक अवस्था का विषय परमार्थ सत् स्वलक्षण है जबकि सविकल्प अवस्था का विषय आरोपित अर्थ अथवा सामान्यलक्षण है। प्रत्यक्ष की सिद्धि - धर्मकीर्ति ने यह प्रतिपादित किया है कि प्रत्यक्ष की सिद्धि के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है,अपितु स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्ष से ही वह सिद्ध होता है । ७ प्रत्यक्ष-प्रमाण के भेद प्रत्यक्ष-प्रमाण चार प्रकार का निरूपित किया गया है - (१) इन्द्रियप्रत्यक्ष, (२) मनोविज्ञान (मानसप्रत्यक्ष),(३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष एवं (४) योगिप्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष 'अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षम्' दिइनाग ने प्रत्यक्ष शब्द की यह जो व्युत्पत्ति की है" वह ८४. Dignaga, on perception, p.97 ८५.संहत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मतिः ।।-प्रमाणवार्तिक, २.१२४ ८६. मनसोः युगपवृत्तेः सविकल्पाविकल्पयोः । विमढो लघवत्तेर्वा तयोरेक्यं व्यवस्यति ।-प्रमाणवार्तिक.२.१३३ ८७. प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति । प्रमाणवार्तिक, २.१२३ ८८. धर्मोत्तरप्रदीप, पृ० ३८.२६, Dignaga on perception, p. 77 पर इसे न्यायमुख, पृ० ३७.१७ पर एवं तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, पृ०३७३.२७ पर भी दिखाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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