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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा जैन तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो अर्थ द्रव्य की दृष्टि से नित्य एवं पर्याय की दृष्टि से अनित्य होता है । नित्यानित्यात्मक अर्थ का ज्ञान कथञ्चित् गृहीतग्राही एवं कथञ्चित् अगृहीतग्राही होता है । वह न सर्वथा गृहीतग्राही कहा जा सकता है और न सर्वथा अगृहीतग्राही । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाण भी कथञ्चित् गृहीतग्राही होते हैं तथा कालगत भेद के कारण कथञ्चित् अगृहीतग्राही होते हैं । इसलिए प्रमाण को सर्वथा अपूर्वार्थमाही कहना शक्य नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रमाण - लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद का प्रयोग जैनदार्शनिक तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से उपयुक्त नहीं है । यदि इस पद का प्रयोग किया जाता है तो प्रमाण लक्षण में अव्याप्ति दोष प्राप्त होता है, क्योंकि प्रमाण कथञ्चित् गृहीतार्थ का ग्राही भी होता है । ८८ बौद्ध तत्त्वमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में यदि विचार किया जाय तो उसके अनुसार पारमार्थिक स्वलक्षण अर्थ क्षणिक होता है । वह प्रतिक्षण निरंश रूप से नष्ट होता रहता है तथा संतान के रूप में नवीन अर्थ उत्पन्न होता रहता है, फलतः वह प्रतिक्षण अज्ञात ही बना रहता है, इसलिए प्रमाण - लक्षण में अज्ञातार्थज्ञापक पद का प्रयोग बौद्ध तत्त्वमीमांसीय दृष्टि को स्पष्ट करने के अतिरिक्त कोई वैशिष्ट्य नहीं रखता। दूसरी बात यह है कि यह लक्षण बौद्धों की पारमार्थिक तत्त्वमीमांसा पर आधृत है, व्यावहारिक दृष्टि से तो स्वलक्षण अर्थ का ग्रहण बाह्येन्द्रियों से होना शक्य नहीं है। संभवतः इसी अपर्याप्तता को ध्यान में रखकर धर्मकीर्ति ने प्रमाण के एक नये लक्षण “प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्” का उटंकन किया। यदि अज्ञातार्थज्ञापक या अज्ञातार्थप्रकाशक प्रमाण का सम्पूर्ण या पर्याप्त लक्षण होता तो धर्मकीर्ति द्वारा नया लक्षण प्रदान न किया जाता । धर्मकीर्ति द्वारा नये लक्षण का उट्टंकन पूर्वलक्षण की अपर्याप्तता ज्ञापित करता है । धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य विषयक विचार भारतीय दर्शन में धारावाहिक ज्ञान (एक ही वस्तु के लगातार ज्ञान) के प्रामाण्य एवं अप्रमाण्य के सम्बन्ध में अनेक विप्रतिपत्तियाँ रही हैं। न्याय-वैशषिकों के अनुसार अधिगतार्थग्राही ज्ञान भी प्रमाण होता है अतः उनके मत में स्पष्टतः धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है । १११ मीमांसकों ने प्रमाण लक्षण अधिगत पद का प्रयोग किया है तथापि वे धारावाहिक ज्ञान का प्रामाण्य अंगीकर करते हैं । प्रभाकर मतानुयायी अनुभूति मात्र को प्रमाण मानते हैं अतः वे धारावाहिक ज्ञानों को परस्पर निरपेक्ष मानकर सबका प्रामाण्य अंगीकर करते हैं । ११२ कुमारिल मतानुयायी प्रमाण में सूक्ष्मकाल का भेद करके अनधिगत पद के औचित्य को सुरक्षित रखते हुए धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं । ११३ १११. अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानामधिगतार्थगोचराणां लोकप्रसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे । - न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ० २१ ११२. अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धयः । व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलाप उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता । - शालिकनाथ, प्रकरणपञ्चिका, उद्धृत, प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ० १२ ११३. धारावाहिकेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । – पार्थसारथिमिश्र, शास्त्रदीपिका, पृ० १२४-२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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