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________________ प्रमाण- लक्षण और प्रामाण्यवाद बौद्ध परम्परा की निरंश क्षणिकवादिनी तत्त्वमीमांसा में धारावाहिक ज्ञान का प्रामाण्य मान्य नहीं है । इसलिए बौद्धदार्शनिक प्रमाणलक्षण में अज्ञात अथवा अनधिगत विशेषण का प्रयोग करते हैं । तथापि योगिप्रत्यक्ष के संदर्भ में बौद्ध दार्शनिक अर्चट ने सूक्ष्म काल भेद का ज्ञान मानकर धारावाहिक ज्ञान में प्रामाण्य ज्ञापित किया है ऐसा पण्डित सुखलाल संघवी का मन्तव्य है । साधारण प्रमाताओं के धारावाहिक ज्ञान को अर्चट ने प्रमाणकोटि में नहीं लिया, क्योंकि तब वह सूक्ष्मकाल भेद का ग्राहक नहीं होता है । 1 ११४ जैन दार्शनिकों में दोनों परम्पराएं हैं। अकलङ्क, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र आदि 'अपूर्व' एवं 'अनधिगत' का प्रयोग करने वाले दिगम्बर दार्शनिक धारावाहिक ज्ञान को तभी प्रमाण मानते हैं जब वह ज्ञान विशिष्ट प्रमाजनक हो । यदि वह पूर्वज्ञान से विशिष्ट प्रमाजनक नहीं है तो अप्रमाण है I प्रमाण- लक्षण में गृहीत अनधिगत, अपूर्व आदि पद इसके साक्षी हैं। श्वेताम्बर परम्परा के सभी विद्वान् स्मृति की भांति धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। प्रमाण- लक्षण में इसीलिए उन्होंने अपूर्व, अनधिगत आदि पदों का सन्निवेश नहीं किया। हेमचन्द्र ने तो स्पष्ट रूपेण प्रतिपादित किया है कि गृहीतग्राही ज्ञान भी ग्रहीष्यमाण या अगृहीत के प्राही ज्ञान के समान प्रमाण है । ' ११५ द्वितीय लक्षण का परीक्षण धर्मकीर्ति प्रणीत “प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्” लक्षण पर जैन दार्शनिक अकलङ्क, विद्यानन्द, सिद्धर्षिगण, अभयदेवसूरि एवं हेमचन्द्र ने प्रमुख रूप से विचार किया है । अकलङ्क - अकलङ्क का धर्मकीर्ति के प्रमाण- लक्षण से स्थूलरूपेण कोई विरोध नहीं है । यही कारण है कि अकलङ्क ने अपने न्याय ग्रंथों में अनेकत्र अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण कहा है। ११६ यही नहीं उन्होंने अष्टशती में बौद्धों के प्रथम लक्षण “अनधिगत अर्थ के ज्ञापक ज्ञान” को अविसंवादकता का हेतु माना है,११७ अतः इसमें संशय नहीं कि अकलङ्क का प्रमाणलक्षण बौद्धों की प्रमाण मीमांसा से प्रभावित है, किन्तु उनके ग्रंथों का सूक्ष्मावलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे धर्मकीर्ति के प्रमाणलक्षण में प्रयुक्त अविसंवादक शब्द के अभिप्राय में उनसे या उनकी परम्परा से मतभेद रखते हैं । धर्मकीर्ति अर्थक्रियास्थिति को अविसंवादन कहते हैं तथा धर्मोत्तर प्रवृत्ति विषयक अर्थप्रदर्शकता को ही संवादकता कहकर उसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी घटित कर लेते हैं जबकि अकलङ्क के अनुसार निश्चयात्मक ज्ञान ही संवादक हो सकता है, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निश्चयात्मक नहीं होने के कारण ११४. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ० १२ एवं हेतुबिन्दुटीका, पृ० ३७-३८ ११५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, ८६ ८९ ११६. (१) अविसंवादकं प्रमाणम्-लघीयस्त्रयवृत्ति, २२, अकलङ्कग्रन्थत्रय, पृ० ८ (२) प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । - अष्टशती, अष्टसहस्त्री, पृ० १७५ (३) यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् । - लघीयस्त्रय, २२ (४) क्वचिदविसंवादस्यान्यथानुपपत्तेः सिद्धं प्रामाण्यमिति । - लघीयस्त्रयवृत्ति, पृ० १० ११७. द्रष्टव्य, उपर्युक्त पादटिप्पण, ११६ (२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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