________________
प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
प्रवृत्त नहीं हुए हैं,तथापि मीमांसादर्शन में प्रणीत प्रमाण-लक्षण पर विचार करते हुए वे परोक्ष रूप से बौद्ध मन्तव्य का भी निरसन कर देते हैं।
__ अकलङ्कादि जैन दार्शनिकों द्वारा किये गये बौद्ध खण्डन से यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन में गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण है । प्रमाण के लिए आवश्यक है कि वह स्व एवं अर्थ का व्यवसायक हो । अनधिगत विषय का ज्ञान कराना उसके लिए आवश्यक नहीं है । स्मृति,प्रत्यभिज्ञान आदि को प्रमाण स्वीकार करना इसका स्पष्ट निदर्शन है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि अकलङ्क, माणिक्यनन्दी आदि कुछ जैन दार्शनिकों ने अपने प्रमाण लक्षणों में अनधिगत अथवा अपूर्व पदों का भी समावेश किया है. इसका क्या औचित्य है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन परम्परा में “अनधिगत" शब्द का प्रमाण-लक्षण में प्रयोग सर्वप्रथम अकलङ्क द्वारा किया गय है,तथा माणिक्यनन्दी द्वारा अपूर्व पद का प्रयोग अकलङ्कका अनुसरण है । प्रश्न यह है कि अकलङ्क ने एक ओर बौद्धों के अपूर्वाधिगम रूप प्रमाण-लक्षण का खण्डन किया है तो दूसरी ओर उन्होंने प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही होने के कारण अविसंवादक माना है, ऐसा क्यों? इसके उत्तर में प्रतीत होता है कि अकलङ्क के द्वारा अष्टशती में प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही मानना बौद्ध प्रमाणमीमांसा का प्रभाव है तथा तत्त्वार्थवार्तिक में बौद्धों का खण्डन उनकी जैन प्रमाणमीमांसीय दृष्टि को प्रस्तुत करता है। माणिक्यनन्दी द्वारा अपूर्व पद का सन्निवेश अकलङ्क द्वारा अष्टशती में प्रयुक्त अनधिगत' पद के प्रभाव को ही द्योतित करता है । विद्यानन्द एक ऐसे दिगम्बर जैन दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने अकलङ्ककृत अनधिगत शब्द के प्रयोग का 'व्यर्थमन्यद्विशेषणं' कहकर निराकरण कर दिया है । विद्यानन्द के अनुसार स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है । वह गृहीतग्राही हो या अगृहीतग्राही हो ,इससे उ.के प्रमाण होने में कोई अन्तर नहीं आता । प्रभाचन्द्र ने भी गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण माना है , किन्तु वे प्रमाण को विशिष्ट प्रमा का जनक होने के कारण कथञ्चित् अपूर्वार्थग्राही भी सिद्ध करते हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्रभाचन्द्र ने मीमांसा- लक्षण में प्रयुक्त अपूर्वार्थविज्ञान १० को सर्वथा अपूर्वार्थ का ग्राही मानकर खण्डन भी किया है। इससे ज्ञात होता है कि अकलङ्क एवं उनकी परम्परा के दिगम्बर जैन दार्शनिक गृहीतग्राही ज्ञान के प्रामाण्य का प्रतिषेध नहीं करते हैं । उनके अनुसार गृहीतग्राही ज्ञान भी विशिष्ट प्रमा का जनक होने के कारण प्रमाण है। ____ अभयदेवसूरि ने भी प्रमाण को विशिष्ट प्रमा का जनक स्वीकार किया है ,किन्तु उनके सहित हेमचन्द्र आदि सभी श्वेताम्बर जैन दार्शनिक एकमत से गृहीतग्राही ज्ञान को स्व एवं अर्थ का प्रकाशक होने के कारण प्रमाण अंगीकार करते हैं । हेमचन्द्र द्वारा ग्रहीष्यमाण अर्थ की भांति गृहीतअर्थ के ग्राही ज्ञान को प्रमाण सिद्ध करना श्वेताम्बर जैन परम्परा का मन्तव्य स्पष्ट करता है । सिद्धर्षिगणि एवं हेमचन्द्र के द्वारा तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से प्रमाण- लक्षण में अनधिगत पद के आदान का खण्डन भी वस्तुतः महत्त्वपूर्ण है।
११०. तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चित बाधवर्जितम्।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ उद्धृत, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० १७१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org