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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रामाण्य है । प्रमाण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह सर्वथा अगृहीत अर्थ का ग्रहण करे ।१०५ हेमचन्द्र-आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही मानने का सबल निरसन किया है तथा गृहीतार्थग्राही ज्ञान के प्रामाण्य का जैनदृष्टि से प्रबल समर्थन किया है । उन्होंने प्रतिपादित किया है कि जिस प्रकार ग्रहीष्यमाण या अधिगम्य अर्थ के ग्राही ज्ञान को प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार गृहीतार्थग्राही ज्ञान भी प्रमाण है।०६ उनका सीधा प्रश्न है-गृहीतार्थग्राही ज्ञान के प्रामाण्य का निषेध क्यों किया जाता है ? द्रव्य की अपेक्षा से या पर्याय की अपेक्षा से ? १०७ पर्याय की अपेक्षा से तो धारावाही ज्ञान में भी गृहीतग्राहिता सम्भव नहीं है,क्योंकि पर्याय क्षणिक होती है अतः प्रतिक्षण नवीन उत्पन्न होती है। प्रतिक्षण नवीन पर्याय का ज्ञान होने से कोई भी ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। अतः उसका निवारण करने के लिए अपूर्व या अनधिगत विशेषण का प्रयोग व्यर्थ है। यदि द्रव्य की अपेक्षा से गृहीतग्राहित्व का निषेध किया जाता है तो वह भी अनुपयुक्त है ,क्योंकि द्रव्य नित्य है अतः उसकी गृहीत एवं ग्रहीष्यमाण अवस्थाओं में कोई भेद नहीं है। इसलिए ग्रहीष्यमाण के ग्राही ज्ञान को प्रमाण मानने एवं गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण नहीं मानने में कोई औचित्य नहीं है ।१०८ ____ आचार्य हेमचन्द्र ने अकलङ्क, माणिक्यनन्दी आदि दिगम्बर जैन दार्शनिकों को लक्ष्य करके कहा है कि जिस प्रकार अवग्रह, ईहा आदि के गृहीतग्राही होने पर भी उन्हें प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार प्रत्येक गृहीतग्राही ज्ञान,जो सम्यगर्थनिर्णायक हो,को प्रमाण मानना चाहिए। अवग्रह आदि में भिन्न विषयता नहीं होती ,क्योंकि दर्शन से जाने गये का अवग्रह होता है तथा अवगृहीत की ईहा होती है और ईहित का निश्चय होता है । १०१ इस प्रकार हेमचन्द्र के मत में द्रव्य एवं पर्याय दोनों अपेक्षाओं से ही प्रमाण-लक्षण में अनधिगतग्राही अथवा अपूर्वग्राही विशेषण निरर्थक हैं । समीक्षण जैन दार्शनिकों द्वारा की गई आलोचना से विदित होता है कि जैनदर्शन में अज्ञातार्थज्ञापक अथवा अनधिगतार्थगन्तृत्व पद का प्रमाण-लक्षण में सन्निवेश होना अभीष्ट नहीं है । यद्यपि अकलङ्क एवं विद्यानन्द के अतिरिक्त अन्य जैन दार्शनिक बौद्ध प्रमाण -लक्षण का खण्डन करने के लिए सीधे १०५. (१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग १, पृ० १७० (२) अभयदेवसूरि ने भी तत्त्वबोधविधायिनी में प्रमाण को विशिष्ट प्रमा का जनक स्वीकार किया है, यथा-न चाधिगते वस्तुनि किं कुर्वद् तत् प्रमाणतामाप्नोतीति वक्तव्यम् विशिष्टप्रमां विदधतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् । न च पूर्वोत्पत्रैव प्रमा तेन जन्यते, प्रमित्यन्तरोत्पादकत्वेन प्रमाणत्वात्। -तत्त्वबोधविधायिनी, प०४६६ १०६. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण ८६ १०७. हेमचन्द्र ने सिद्धर्षिगणि की भाति ही जैन तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से यह प्रश्न किया है। १०८. प्रमाणमीमांसा, स्वोपज्ञवृत्ति , १.१.४ १०९. प्रमाणमीमांसा, स्वोपज्ञवृत्ति , १.१.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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