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________________ प्रमाण - लक्षण और प्रामाण्यवाद बने रहने से प्रमाणलक्षण में अनधिगत पद का समावेश सिद्धर्षिगण के अनुसार व्यर्थ है । प्रभाचन्द्र - आचार्य प्रभाचन्द्र ने कथञ्चित् अनधिगत अर्थ के प्राही ज्ञान को प्रमाण कहा है, सर्वथा अपूर्वार्थग्राहित्व का उन्होंने भी खण्डन किया है। प्रभाचन्द्र कहते हैं कि यदि सर्वथा अनधिगत अर्थ अधिगन्ता ज्ञान को ही प्रमाण माना जायेगा तो प्रमाण के प्रामाण्य का निश्चय करना भी शक्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि प्रामाण्य का निश्चय संवाद ज्ञान से होता है। संवाद ज्ञान का विषय पूर्वप्रमाण द्वारा अधिगत अर्थ ही होता है, अतः अधिगत अर्थ का अधिगन्ता होने से संवादज्ञान अप्रमाण हो जायेगा । अप्रमाणभूत संवादज्ञान से प्रथम प्रमाण का प्रामाण्य व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता । इस प्रकार लक्षण में अनधिगत पद का प्रयोग समुचित नहीं है । १०२ ८५ प्रभाचन्द्र ने कथञ्चित् गृहीतग्राही ज्ञान का भी प्रामाण्य अंगीकार किया है । इसीलिए वे प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण देकर उसके प्रामाण्य की पुष्टि करते हैं, तथा सर्वथा अपूर्व अर्थ के ग्राहक ज्ञान को प्रमाण मानने वाले मीमांसकों एवं बौद्धों का खण्डन करते हैं। मीमांसकों का खण्डन करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रत्यभिज्ञान अनुभूत अर्थ का ही ग्राहक होता है, तथा स्मृति एवं प्रत्यक्ष से प्रतिपन्न अर्थ में ही उसकी प्रवृत्ति होती है। प्रत्यभिज्ञान को यदि प्रमाण न माना जाय तो शब्द, आत्मा आदि के नित्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । १०३ अनधिगतमाही ज्ञान के प्रमाणत्व का निरसन करते हुए प्रभाचन्द्र कहते हैं कि यदि अनधि अथवा अपूर्व अर्थ के ग्राहक ज्ञान को ही प्रमाण कहा जाय तो द्विचन्द्रज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा, क्योंकि वह भी सर्वथा अनधिगत का प्राही ज्ञान है । १०४ इस प्रकार प्रभाचन्द्र के मत में प्रमाण का सर्वथा अनधिगतार्थग्राही होना अनुपपन्न है । प्रभाचन्द्र प्रमाण को कथञ्चित् विशिष्ट प्रमा का जनक होने से अपूर्वार्थग्राही भी मानते हैं । एक बार निश्चित रूप से जाने गये ज्ञान को पुनः जानने में वे विशिष्ट प्रमा स्वीकार करते हैं, प्रभाचन्द्र के अनुसार एक वस्तु को पुनः जानने पर उसकी सुखादि साधकता विशेष की प्रतीति होती है। प्रथम बार में वस्तुमात्र का निश्चय होता है, फिर यह सुख की साधक है अथवा दुःख की साधक है, यह निश्चय करके उसको ग्रहण किया जाता है अथवा छोड़ा जाता है। यदि बार बार निश्चय किया जाय तो प्रा वस्तु का ग्रहण एवं त्याज्यवस्तु का त्याग नहीं किया जा सकता। कुछ लोगों को अभ्यास के कारण एक बार देखने से भी वस्तु की हेयोपादेयता का निश्चय हो जाता है। अतः प्रभाचन्द्र के अनुसार एक ही वस्तु को जानने वाले आगम, अनुमान एवं प्रत्यक्ष प्रमाण में कथञ्चित् विशेष प्रतिपत्ति होने से १०२. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग १, पृ० १६९ १०३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग १, पृ० १७१ १०४. किच, अपूर्वार्थप्रत्ययस्य प्रामाण्ये द्विचन्द्रादिप्रत्ययोऽपि प्रमाणं स्यात् । - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग १, पृ० १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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