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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा से अज्ञात अर्थ को जानना प्रमाण है तो वह अधिगम्य अर्थ कैसा है ? उसका क्या स्वरूप है ? सिद्धर्षिगणि अर्थ-स्वरूप के आठ पक्ष प्रस्तावित करते हैं ,यथा- (१) वह अर्थ द्रव्य है (२) पर्याय है (३) द्रव्य विशिष्ट पर्याय है (४) पर्यायविशिष्ट द्रव्य है (५) सामान्य है (६) विशेष है (७) सामान्य विशिष्ट विशेष है (८)विशेषविशिष्ट सामान्य है । इस प्रकार अर्थ के आठ स्वरूपों की संभावना करके सिद्धर्षिगणि उनके प्रत्येक स्वरूप में अनधिगतत्व को अनुपपन्न सिद्ध करते हैं। प्रथम पक्ष के अनुसार द्रव्य को अर्थ का स्वरूप माना जाता है तो वह नित्य एवं एक होता है अतः उसमें अनधिगत अंश का अभाव रहता है । यदि द्वितीय विकल्प के अनुसार पर्याय ही अर्थ है तो वह प्रतिक्षण नवीन उत्पन्न होने के कारण अनधिगत ही रहता है, अतः उसके लिए अनधिगत विशेषण का प्रयोग अनर्थक है । यदि अर्थ को द्रव्यविशिष्ट पर्याय माना जाय तो इसका समकाल में ज्ञान नहीं हो सकता तथा परस्पर में अधिगत का ज्ञान किया जाय तो अप्रामाण्य की प्रसक्ति होती है। यदि कालान्तरभावी ज्ञान से द्रव्यविशिष्ट पर्याय रूप अर्थ का ग्रहण किया जाय तो अन्य ही पर्याय का ज्ञान होगा,वर्तमान क्षणवर्ती द्रव्यविशिष्ट पर्याय का नहीं ,अतः इस विकल्प में भी अनधिगत विशेषण हेय है । इसी प्रकार पर्यायविशिष्ट द्रव्य को अर्थ मानने में भी उपर्युक्त दोष आते हैं। यदि पञ्चम विकल्प के अनुसार अधिगम्य अर्थ, सामान्य' है तो उसके एक होने के कारण प्रथमज्ञान में ही सकल अर्थ का ज्ञान हो जायेगा । अतः उसका उत्तरकालीन ज्ञान अधिगत अर्थ का ही ज्ञान कराने से अप्रमाण सिद्ध होगा । यदि विशेष रूप अर्थ है तो वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो प्रथम ज्ञान से समस्त विशेषों का ज्ञान हो जायेगा तथा यदि वह अनित्य है तो उसमें भी पर्याय के समान सदैव अनधिगत रहने का दोष आता है। यदि सामान्य से विशिष्ट विशेष है, तो उसकी विशिष्टता तादात्म्य रूप है या सन्निधिरूप है ? यदि विशिष्टता तादात्म्यरूप है तो प्रथम ज्ञान में ही सामान्य की भांति सम्पूर्ण अर्थ का ज्ञान हो जायेगा, तथा यदि विशिष्टता सन्निधि रूप है तो सामान्य एवं विशिष्ट दो भिन्न पक्ष हो जाते हैं अतःउन दोनों के दोषों का आपादन होगा । विशेषविशिष्ट सामान्य भी इसी प्रकार अनधिगत विशेषण की अपेक्षा नहीं करता । ०१ इस प्रकार सिद्धर्षिगणि अनधिगतार्थाधिगन्तृत्व' प्रमाण-लक्षण को अनुपपन्न सिद्ध करते हैं। उनके द्वारा किया गया खण्डन जैन तत्त्वमीमांसीय दृष्टि पर आधारित है। उन्होंने अर्थ के स्वरूप को लेकर ही अनधिगत विशेषण को अनुचित ठहराया है। जो संभवतः मीमांसकों एवं प्रमाण को अपूर्वार्थग्राही मानने वाले अकलङ्क,माणिक्यनन्दी आदि जैन दार्शनिकों के मत का निरसन करता है। बौद्धमत का खण्डन भी परोक्षरूप से हो गया है ,क्योंकि उनके यहां जो स्वलक्षण अर्थ स्वीकृत है वह प्रतिक्षण नया उत्पन्न होने के कारण अनधिगत ही बना रहता है । अर्थ के प्रतिक्षण अनधिगत १०१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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