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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
अनधिगत अथवा अज्ञात पद के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है।९७ विद्यानन्द-विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में बौद्ध सम्मत अज्ञातार्थप्रकाश रूप प्रमाणलक्षण का खण्डन कर गृहीतार्थग्राही अथवा अधिगतार्थज्ञापक ज्ञान को भी प्रमाण सिद्ध किया है । विद्यानन्द कहते हैं कि अनुमान-प्रमाण गृहीतग्राही होता है, अतः वह अज्ञातार्थप्रकाश रूप प्रमाणलक्षण के अनुसार प्रमाण सिद्ध नहीं होता है । यदि प्रत्यक्ष द्वारा क्षणिकत्वादि वस्तु के गृहीत होने पर भी उसमें रहे हुए संशयादि समारोप का व्यवच्छेद करने के कारण अनुमान का प्रामाण्य है,तो यह बौद्ध मंतव्य उचित नहीं है ,क्योंकि इस प्रकार जैन सम्मत स्मृति,प्रत्यभिज्ञान आदि को भी प्रमाण मानना होगा, क्योंकि वे भी कथञ्चित् समारोप के व्यवच्छेदक हैं । फिर स्मृति आदि को प्रमाण मानने पर बौद्धों की दो प्रमाणों की मान्यता भी भंग हो जाती है। यदि प्रत्यक्ष को मुख्य प्रमाण मानकर उसके लिए अज्ञातार्थप्रकाश लक्षण एवं अनुमान को व्यावहारिक प्रमाण मानकर उसके लिए अविसंवादी ज्ञान रूप लक्षण दिया गया है तो इस प्रकार एक ही प्रमाणसामान्य के लिए दो लक्षणों का निरूपण बुद्धिमत्ता नहीं है।९८
बौद्ध प्रमाण-लक्षण के प्रसंग में विद्यानन्द ने मीमांसकों के अपूर्वार्थसाहित्व प्रमाण-लक्षण का भी खण्डन किया है,तथा यह सिद्ध किया है कि ज्ञान गृहीतग्राही हो अथवा अगृहीतग्राही,यदि वह स्व एवं अर्थ का निश्चायक है तो प्रमाण है । स्व एवं अर्थ के निश्चायक ज्ञान की प्रमाणता लोक व्यवहार में एवं शास्त्रों में भी सुरक्षित है। विद्यानन्द ने प्रमाण का लक्षण निर्धारित करते हुए स्व एवं अर्थ के निश्चायक ज्ञान को ही प्रमाण कहा है। इसके अतिरिक्त प्रयुक्त अपूर्व, अनधिगत आदि विशेषणों को उन्होंने व्यर्थ बतलाया है ।१०० सिद्धर्षिगणि-सिद्धसेन के न्यायावतार पर विवृति की रचना करते हुए सिद्धर्षिगणि ने अनधिगतार्थधिगन्त प्रमाण-लक्षण पर तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से विचार किया है। वे परमतावलम्बियों से प्रश्न करते हैं कि अनधिगत अर्थ के अधिगम का क्या तात्पर्य है ? यदि प्रमाणान्तरया ज्ञानान्तर से अनधिगत अर्थ को जानना प्रमाण है तो वह ज्ञानान्तर दूसरे का है या अपना है ? यदि दूसरे के ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ भी अधिगत अर्थ है ,तो यह मानना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ के द्वारा समस्त अर्थों का ज्ञान कर लिये जाने के कारण कोई भी अर्थ अज्ञात नहीं रहता है । फलस्वरूप समस्त प्राकृतजनों का ज्ञान अधिगत अर्थ का अधिगन्ता होने के कारण अप्रमाण हो जायेगा । यदि अपने ज्ञानान्तर की अपेक्षा
९७. तत्त्वार्थवार्तिक, १.१२.१२ ९८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क ९९. गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थं यदि व्यवस्यति ।
तत्र लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१०.७८ ।। १००. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पाद टिप्पण,७९ ।
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