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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जैनमत में प्रमाण है।
जैनदार्शनिकों द्वारा बौद्ध प्रमाण-लक्षणों का परीक्षण जैन दार्शनिकों ने बौद्ध दार्शनिकों द्वारा निरूपित अज्ञातार्थज्ञापक, अविसंवादी ज्ञान एवं अर्थसारूप्य इन तीनों प्रमाणलक्षणों पर विचार किया है । अज्ञातार्थापक लक्षण को लेकर अकलङ्क एवं विद्यानन्द ने बौद्धों का पर्याप्त खण्डन किया है। अन्य जैन दार्शनिकों ने प्रमुख रूप से मीमांसकों को लक्ष्य बनाकर खण्डन किया है ,किन्तु परोक्ष रूप से वह खण्डन लक्षण साम्य के कारण बौद्धों पर भी लाग होता है। अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मानने का जैन दार्शनिकों ने प्रतिषेध नहीं किया है. किन्तु उसे निश्चयात्मक ज्ञान में घटित किया है। बौद्धों द्वारा कल्पित प्रमाणों में उन्होंने बौद्ध तत्त्वमीमांसा के आधार पर अविसंवादिता का खण्डन प्रस्तुत किया है। अर्थसारूप्य को प्रमाण मानने का सभी जैन दार्शनिक प्रबल विरोध करते हैं। प्रथम लक्षण का परीक्षण
_प्रमाण के अज्ञातार्थज्ञापकत्व अथवा अनधिगतार्थगन्तृत्व स्वरूप का निरसन प्रमुख रूप से जैन दार्शनिक अकलङ्क, विद्यानन्द, सिद्धर्षिगणि, प्रभाचन्द्र एवं हेमचन्द्र के न्याय ग्रंथों में मिलता है। अकलङ्क- भट्ट अकलङ्क ने यद्यपि अनधिगतार्थग्राहित्व को प्रमाण- लक्षण में स्थान दिया है,५ तथापि वे इसे कथञ्चित् ही प्रमाणस्वरूप का अंग मानते हैं, इसीलिए तत्त्वार्थराजवार्तिक में उन्होंने दिइनाग के अपूर्वाधिगम या अज्ञातार्थज्ञापक प्रमाणलक्षण का खण्डन किया है । उन्होंने प्रतिपादित किया है कि जिस प्रकार अन्धकार में स्थित घटादि पदार्थों को दीपक अपने उत्पत्तिकाल में प्रकाशित कर देता है, तथापि अनन्तर काल में भी वह उन पदार्थों को प्रकाशित करते रहने के कारण उनका प्रकाशक कहलाता है । उसी प्रकार ज्ञान भी अपने उत्पत्तिकाल में घटादि पदार्थों का अवभासक होने से प्रमाण कहलाता है । तथापि वह उत्तरकाल में भी उन घटादि पदार्थों का अवभासक बना रहकर प्रमाण व्यपदेश को छोड़ नहीं देता। अर्थात् वह ज्ञान अनन्तर क्षणों में भी उन घटादि पदार्थों का अवभासक होने के कारण प्रमाण बना रहता है।९६
___ यदि बौद्धमत के अनुसार दीपक प्रतिक्षण अन्य ही होता है तथा वह प्रतिक्षण अपूर्व घटादि को प्रकाशित करता है,तो उसी प्रकार ज्ञान भी दीपक की भांति प्रतिक्षण नवीन उत्पन्न हो रहा है,वह भी प्रतिक्षण अपूर्व घटादि को जान सकता है । जब ज्ञान एवं अर्थ दोनों अपूर्व हैं तो बौद्धों का यह कथन कि स्मृति, इच्छा, द्वेषादि के समान पूर्वाधिगत विषय वाला ज्ञान पुनः पुनः अभिधान करने के कारण प्रमाण नहीं है,(द्रष्टव्य,पादटिप्पण ८ व ९) खण्डित हो जाता है । आशय यह है कि ज्ञान भी अन्य घटादि पदार्थों के सदृश सदैव अपूर्व ही बना रहता है अतः बौद्धों के द्वारा प्रमाण-लक्षण में अपूर्व,
९५. द्रष्टव्य, यही अध्याय. पादटिप्पण ७४ ९६. तत्त्वार्थवार्तिक, १.१२.१२
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