SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण - लक्षण और प्रामाण्यवाद ८८ I अबाधित एवं पूर्वापर विरोध से रहित ज्ञान को अविसंवादक कहते हैं " तथा अन्यत्र अविसंवादकता को निर्णयात्मक ज्ञान के अधीन प्रतिपादित करते हैं। वे कहते हैं कि जहां ज्ञान में निर्णयात्मकता है, वहां अविसंवादकता है । निर्णय के अभाव में अविसंवादकता का भी अभाव है । ८९ अकलङ्क के अनुसार अकिञ्चित्कर, संशय एवं विपर्यय का व्यवच्छेद होने पर ही ज्ञान में निर्णयात्मकता शक्य है, अन्यथा नहीं ।" अकलङ्क द्वारा निश्चयात्मकता के साथ अविसंवादकता का स्थापन उत्तरवर्ती जैनदार्शनिकों द्वारा भी अनुकरणीय रहा है। संवादकता एवं असंवादकता के प्रसंग में अकलङ्क किसी ज्ञान को पूर्णतः संवादक अथवा पूर्णतः विसंवादक नहीं मानते हैं। उनके अनुसार जिस ज्ञान में जितने अंश में संवादकता होती है, वह ज्ञान उतने अंश में प्रमाण है । तिमिररोग से ग्रस्त पुरुष को जो द्विचन्द्र ज्ञान होता है, उसमें चन्द्रज्ञान अविसंवादक होने से प्रमाण है तथा द्वित्वसंख्या का ज्ञान विसंवादक होने से अप्रमाण है । ९१ जैनदार्शनिकों के प्रमाणलक्षण में सविकल्प शब्द का सीधा प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु वे प्रत्येक प्रमाण को सविकल्पक मानते हैं। ज्ञान सविकल्प होता है तथा उसमें निश्चयात्मकता सविकल्पकता के बिना संभव नहीं है। यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन करते समय प्रमाण की सविकल्पकता का सबल स्थापन किया है १९२ प्रमाण के सविकल्पात्मक एवं निश्चयात्मक होने के साथ वे उसे उपादेय अर्थ की प्राप्ति एवं हेय अर्थ के त्याग में भी कारण स्वीकार करते हैं । ९३ माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि ने हित की प्राप्ति एवं अहित के त्याग में समर्थ होने के कारण प्रमाण को ज्ञानात्मक प्रतिपादित किया है । ९४ ८१ संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में स्व एवं बाह्य अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान ही प्रमाण है । वह ज्ञानात्मक होने के कारण इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थसन्निकर्ष रूप नहीं होता । व्यवसायात्मक होने के कारण वह निर्विकल्पक या कल्पनापोढ नहीं होता एवं संशयादि समारोप से रहित होता है । व्यवसायात्मकता अथवा निश्चयात्मकता के कारण वह संवादक एवं हेयोपादेय अर्थ में प्रवर्तक भी होता है। उसके लिए आवश्यक नहीं कि वह अनधिगत अर्थ का ही ग्राही हो, गृहीतग्राही ज्ञान भी ८८. प्रमाणान्तराबाधनं पूर्वापराऽ विरोधश्चाविसंवादः । - लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कमन्यत्रय, पृ० १४.२१ ८९. अविसंवादकत्वं च निर्णयायत्तम् । तदभावेऽ भावात् तद्भावे च भावात् ॥ - लघीयस्त्रयवृत्ति ६०, ९०. अकिञ्चित्करसंशयविपर्ययवच्छेदेन निर्णयात्मकत्वं नान्यथा । - सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, भाग १, पृ० १३ । ९१. ययथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् । तिमिराद्युपप्लवज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकं प्रमाणं यथा तत्संख्यादौ विसंवादकत्वादप्रमाणं प्रमाणेतरव्यवस्थायाः तल्लक्षणत्वात् । - लघीयस्त्रय एवं वृत्ति, २२ ९२. द्रष्टव्य, तृतीय अध्याय में बौद्ध प्रत्यक्ष का खण्डन, पृ. १४३ २०४ ९३. हिताहितार्थ संप्राप्तित्यागयोर्यनिबन्धनम् । तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥ - न्यायावतारवार्तिक, १ ९४. (१) हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । - परीक्षामुख, १.२ (२) अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षमं हि प्रमाणम्, अतो ज्ञानमेवेदम् । प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy