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________________ ७८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदष्टि से समीक्षा ज्ञानों को प्रत्यक्ष-प्रमाण कहा है।५८ उमास्वाति के अतिरिक्त अनुशागद्वार सूत्र में भी भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञानगुण का प्रतिपादन करते हुए ज्ञान गुण के प्रत्यक्ष,अनुमान,औपम्य एवं आगम ये चार भेद करके उन्हें प्रमाण कहा गया है तथापि जैनदृष्टि के अनुसार ज्ञान का प्रमाण रूप में व्यवस्थापन करने का श्रेय उमास्वाति को दिया जा सकता है,क्योंकि उन्होंने न्यायसम्मत प्रत्यक्षादि प्रमाणों को स्थान न देकर मतिज्ञानादि जैनसम्मत ज्ञानों को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित किया है। __भारतीयदर्शन में सामान्यतः प्रमा के करण को प्रमाण कहा गया है।६० जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान को ही अर्थाधिगति का साधकतम या प्रमिति का करण मानकर उसे प्रमाण कहा है।६१ समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में तत्त्वज्ञान को प्रमाण एवं विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण५२ इसी आशय से प्रतिपादित किया है । सम्यग्ज्ञान का अर्थ विद्यानन्द ने स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान किया है । जो ज्ञान स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक नहीं होता वह विद्यानन्द के मत में सम्यग्ज्ञान नहीं है, इसलिए वे संशय,विपर्यय एवं अनध्यवसाय को सम्यग्ज्ञान नहीं मानते हैं।६४ तत्त्वज्ञान को भी विद्यानन्द से संशयादि मिथ्याज्ञानों से रहित बतलाया है।६५ प्रभाचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने भी प्रमाण को संशय,विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित निरूपित करते हुए उसे प्रमिति का करण कहा है।६६ जैन दर्शन में ज्ञान को स्व एवं पर पदार्थ का प्रकाशक माना गया है । जिस प्रकार दीपक या सूर्य बाह्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है तथा स्वयं को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान बाह्य पदार्थों का प्रकाशक होने के साथ अपने आपका भी प्रकाशक होता है।६७ ज्ञान की स्व प्रकाशकता विज्ञानवादी बौद्धों ने भी अंगीकार की है , किन्तु वे ज्ञान को बाह्यार्थ का प्रकाशक नहीं मानते हैं ।नैयायिकों एवं मीमांसकों ने ज्ञान को बाह्यार्थ का प्रकाशक माना है ,किन्तु स्वयं का प्रकाशक नहीं माना है । जैन दार्शनिकों ने इन दोनों मतों का निरसन कर ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता सिद्ध की है।६८ ५८. मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् । तत् प्रमाणे । आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।-तत्त्वार्थसूत्र , १.९-१२ । ५९. अनुयोगद्वारसूत्र, उत्तरार्द्ध, भाव एवं जीवगुण प्रमाणद्वार, पृ. १६४-१६९ । ६०.प्रमाकरण प्रमाणम् ।-केशवमित्र, तर्कभाषा, प्रमाणनिरूपण। ६१.(१) ततो ऽस्य साधकतमत्वं यथोक्तमुपपद्यत एव ।-अष्टसहस्री, पृ. २७६.८ (२) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्र वा प्रमाणम् ।-सर्वार्थसिद्धि, १.१० पृ.६९ । ६२. तत्त्वज्ञानं प्रमाणम्।-आप्तमीमांसा,, १०१ ६३. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्।-प्रमाणपरीक्षा, पृ.१ ६४. स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । यत्तु न स्वार्थव्यवसायात्मकं तत्र सम्यग्ज्ञानम् , यथा संशयविपर्ययानध्यवसायाः। -प्रमाणपरीक्षा, प्र.५ । ६५. तत्त्वज्ञानं प्रमाणमिति हि निगद्यमाने मिथ्याज्ञानं संशयादि मत्याद्याभासं व्यवच्छिद्यते ।- अष्टसहस्री, पृ. २७६.७ । ६६.प्रकणसंशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणं प्रमायां साधकतमम् ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.१ की वृत्ति एवं न्यायकुमुदचन्द्र,भाग-१,पृ.४८.१० ६७. ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् ।-नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, १५९, पृ. ३१९ । ६८. यत्पुन : स्वपरप्रकाशात्मकं न भवति न तद् ज्ञानम् ।-प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. ३६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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