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प्रमाण- लक्षण और प्रामाण्यवाद
जैनागमों में ज्ञान का जो निरूपण है उसे ही जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है । नन्दीसूत्र, भगवतीसूत्र, षट्खण्डागम आदि आगमों में ज्ञान का विशद एवं विस्तृत विवेचन है। जैनागमों में निरूपित ज्ञान ही जैन प्रमाणमीमांसा का अंग बना । सम्यग्ज्ञान को जैन दार्शनिकों ने प्रमाण तथा मिथ्याज्ञान को अप्रमाण या प्रमाणाभास कहा। जैनागमों में सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाले ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा गया है तथा मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन पूर्वक होने वाले ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा गया है,५१ किन्तु प्रमाणमीमांसा के क्षेत्र में जैन दार्शनिकों ने संशय, विपर्यय, एवं अनध्यवसाय से रहित निश्चयात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा है तथा इनसे युक्त अनिश्चयात्मक अथवा विसंवादक ज्ञान को मिथ्याज्ञान या अप्रमाण कहा है । आगम एवं प्रमाणमीमांसा के सम्यग्ज्ञान
यही मौलिक भेद है कि आगम के अनुसार मोहकर्म की सात प्रकृतियों (अनन्तानुबन्धी-चतुष्क तथा सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह एवं मिश्र मोह) के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्रकट होने वाले सम्यक्त्व से युक्त ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा गया है, जबकि प्रमाणमीमांसा में संशयादि समारोप से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
'प्रमाण' शब्द का प्रयोग जैनागम स्थानांग एवं अनुयोगद्वारसूत्र में मापन के अर्थ में भी हुआ है, तथा उसके चार भेद निरूपित किये गये हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण एवं भावप्रमाण २ 14 अनुयोगद्वार एवं भगवतीसूत्र में न्यायदर्शन सम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं आगम इन चार प्रमाणों का भी उल्लेख मिलता है । ५३ स्थानांगसूत्र में इन्हीं चार प्रमाणों को 'हेतु' शब्द से भी कहा गया है । ५४ बौद्ध ग्रंथ उपायहृदय में भी प्रमाण के लिए 'हेतु' शब्द का प्रयोग हुआ है। 44 उत्तरकाल में हेतु शब्द का प्रयोग अनुमान -प्रमाण के अन्तर्गत हुआ है, किन्तु प्राचीन साहित्य में सभी प्रमाणों के लिये प्रयुक्त हेतु शब्द उसके अर्थ की व्यापकता को द्योतित करता है । स्थानांगसूत्र में प्रमाण का 'व्यवसाय' शब्द से भी उल्लेख हुआ है, तथा उसके प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और अनुगामी ये तीन भेद किये गये हैं। अभयदेव के अनुसार प्रात्ययिक शब्द से आगम एवं अनुगामी शब्द से अनुमान प्रमाण का बोध होता है । ७ संभव है स्थानांगसूत्र में प्रयुक्त व्यवसाय शब्द ही जैनदार्शनिकों द्वारा निरूपित प्रमाण का प्रमुख लक्षण बना हो ।
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ज्ञान की प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठा सर्वप्रथम जैनदार्शनिक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में दिखाई देती है। उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव एवं केवल इन पांच ज्ञानों का निरूपण करने के अनन्तर उन्हें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण-भेदों में विभक्त किया है। प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष तथा अन्तिम तीन
५१. तत्त्वार्थवार्तिक, १. ३१ पृ. ९२, नन्दी सूत्र, ४६ ५२. द्रष्टव्य, अध्याय १, पादटिप्पण, १३५
५३. द्रष्टव्य, अध्याय १, पादटिप्पण, १३० ५४. स्थानांगसूत्र, ४३०, सुत्तागमे, पृ. २४७
५५. चतुर्विधं प्रमाणम् । प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमश्चेति । एवं चत्वारो हेतवः । - उपायहृदय, पू. १३-१४,
५६. द्रष्टव्य, अध्याय १, पादटिप्पण, १३२
५७. आगमयुग का जैन दर्शन, पृ. १३८
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