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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा ४७ करते हुए कहते हैं कि जब बाह्य अर्थ प्रमेय होता है तब विषयाधिगति फल होता है तथा सारूप्य प्रमाण होता है और जब ज्ञानात्मा प्रमेय होता है तब स्वसंवित्ति फल होता है एवं योग्यता प्रमाण होती है । योग्यता के कारण ही ज्ञान आत्मप्रकाशक होता है। शान्तरक्षित के पूर्व प्रमाणवार्तिक में धर्मकीर्ति ने भी इस आशय का कथन किया है। वे कहते हैं- 'रागादि अनुभवात्म होने से स्वात्म संवेदन के योग्य हैं, उनकी योग्यता प्रमाण है, आत्मा स्वरूप प्रमेय है एवं फल स्वसंवित्ति है । ' ४८ ७६ अर्थसारूप्य की विशेषचर्चा प्रमाण- फल का विवेचन करते समय षष्ठ अध्याय में की गई है। तथा उसका जैनदार्शनिकों के द्वारा खण्डन भी प्रस्तुत किया गया है। ४९ जैनदर्शन में प्रमाण- लक्षण जैनदर्शन में सामान्य रूप से जो प्रमाण-लक्षण प्रतिष्ठित हुआ है, उसके अनुसार स्व एवं पर अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। जैनदार्शनिक न्यायदर्शन सम्मत इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थसन्निकर्ष की भांति बौद्धाभिमत निर्विकल्पक ज्ञान को भी अव्यवसायात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं । ५० जैनदार्शनिक प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने के साथ निश्चयात्मक भी मानते हैं। निश्चयात्मकता अथवा व्यवसायात्मकता ही जैन दार्शनिकों के प्रमाण का प्रमुख लक्षण है, जो उसे बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित प्रमाण- लक्षण से पृथक् करता है । यद्यपि बौद्धदर्शन के प्रभाव से जैन प्रमाणलक्षण में अनधिगतार्थप्राहिता एवं अविसंवादकता का भी समावेश हुआ है, किन्तु अनधिगतार्थप्राहिता को सारे जैन दार्शनिकों ने प्रमाणलक्षण के रूप में अंगीकार नहीं किया है। अकलङ्क, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, आदि दिगम्बर दार्शनिकों ने इसे प्रमाणलक्षण में गर्भित करके अनधिगत अथवा अपूर्व अर्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है। अभयदेवसूरि, सिद्धर्षिगणि, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि श्वेताम्बर तथा विद्यानन्द जैसे दिगम्बर जैन दार्शनिक ने प्रमाण लक्षण में अनधिगत अथवा अपूर्व विशेषण को अनुचित मानकर उसका खण्डन किया है। इससे ज्ञात होता है कि जैनदर्शन को प्रमाण का अज्ञातार्थज्ञापक लक्षण सर्वसम्मति से अभीष्ट नहीं है। अविसंवादकता को अकलङ्क से लेकर अन्त तक सभी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन दार्शनिकों ने स्वीकार किया है, किन्तु वे अविसंवादकता का मानदण्ड निश्चयात्मकता को मानते हैं। संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित ज्ञान जैन दर्शनानुसार निश्चयात्मक होता है तथा वही प्रमाण कहा गया है। निश्चयात्मकता के अभाव में जैनदार्शनिकमत में कोई ज्ञान संवादक नहीं हो सकता । संवादकता के साथ हेयोपादेय अर्थ में प्रवर्तकता को भी जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के साथ सम्बद्ध किया है। ४७. बाह्येऽर्थे प्रमेये विषयाधिगम: प्रमाणफलम्, सारूप्यं तु प्रमाणम् । स्वसंवित्तावपि सत्यां यथाकारमस्य प्रथनात् । ज्ञानात्मनि तु प्रमेये स्वसंवित्तिः फलम्, योग्यता प्रमाणम् । - तत्त्वसंग्रहपज्जिका, १३४३, पृ. ४८७ । ४८. तत्राप्यनुभवात्मत्वात् ते योग्या: स्वात्मसंविदः । इति सा योग्यता मानमात्मा मेयः फलं स्ववित् । - प्रमाणवार्तिक, २.३६६ ४९. द्रष्टव्य, अध्याय ६, पृ. ३६४-३६६ एवं ३६८-३८२ ५०. द्रष्टव्य, तृतीय अध्याय में जैनदार्शनिकों द्वारा किया गया बौद्धप्रत्यक्ष का खण्डन, पृ. १४३-२०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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