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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
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निराकरण नहीं किया जा सकता तथा अविसंवादिता के बिना अर्थक्रिया में प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए दोनों लक्षण मिलकर ही प्रमाण के व्यवहार एवं परमार्थ रूप को प्रकट करने में समर्थ हैं। यही कारण है कि उत्तरकाल में मोक्षाकरगुप्त दोनों प्रमाणलक्षणों का समन्वय करते हुए अपूर्व विषयक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। ° सम्यग्ज्ञान का अर्थ बौद्ध दर्शन में अविसंवादक ज्ञान किया गया
तृतीय लक्षण
बौद्धदर्शन में प्रमाण के तृतीय लक्षण अर्थसारूप्य का निरूपण अज्ञातार्थप्रकाशकता एवं अविसंवादी ज्ञान की भाँति स्वतंत्र रूप से नहीं मिलता है, किन्तु जब प्रमाण एवं उसके फल में भेद प्रदर्शित किया गया है तब अर्थसारूप्य को प्रमाण एवं अधिगति को फल कहा गया है । अर्थसारूप्य को प्रमाण बाह्यार्थवाद की दृष्टि से कहा गया है। विज्ञानवाद के अनुसार योग्यता को प्रमाण एवं स्वसंवित्ति को फल कहा गया है । बाह्य अर्थ को जानते समय ज्ञान अर्थाकार हो जाता है,अथवा अर्थ के सरूप हो जाता है। ज्ञान का अर्थसरूप होना ही प्रमाण है । प्रमाण का यह स्वरूप दिइनाग के प्रमाणसमुच्चय,शंकरस्वामी के न्यायप्रवेश,धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु एवं शान्तरक्षित के तत्त्वसङ्ग्रह में स्पष्ट रूपेण प्रतिपादित है । दिड्नाग सव्यापार ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। उनके मत में निर्व्यापार ज्ञान प्रमाण नहीं है। २ दिइनागके शिष्य शङ्करस्वामी ने भी सव्यापारवती ख्याति का ही प्रमाणत्व अंगीकार किया है। धर्मकीर्ति ने सव्यापार शब्द का प्रयोग नहीं करके अर्थसारूप्य शब्द का प्रयोग किया है। वे कहते हैं कि ज्ञान का जो अर्थ के साथ सारूप्य या सादृश्य है वह प्रमाण है। धर्मोत्तर ने सारूप्य लक्षण को प्रमा के करण के रूप में प्रमाण कहा है। ५ जिस विषय से ज्ञान उदित होता है वह उस विषय के सदृश होता है । जैसे नील से उत्पन्न होने वाला ज्ञान नील के सदृश ही होता है। अन्य शब्दों में कहें तो विषयाकारता प्रमाण एवं विषयावगति उसका फल है।
शान्तरक्षित ने सारूप्य के साथ योग्यता को भी प्रमाण का लक्षण कहा है। योग्यता को प्रमाणलक्षण उन्होंने तब कहा है जब स्वसंवित्ति फल हो । विषयाधिगति के फल होने पर तो वे भी सारूप्य को ही प्रमाण मानते हैं।४६ कमलशील अपनी तत्वसाहपञ्जिका में इसका विशद विवेचन
४०. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानमपूर्वगोचरम् ।-तर्कभाषा (मोक्षाकरा पृ०,१ ४१. अविसंवादकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्।-न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ० १० ४२. सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाणं फलमेव सत्।। ___ प्रमाणत्वोपचारस्तु निर्व्यापारे न विद्यते ॥-प्रमाणसमुच्चय, ९ ४३. सव्यापारवत्ख्यातेः प्रमाणत्वमिति ।-न्यायप्रवेश, पृ०७.१७ ४४. अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम्।-न्यायबिन्दु, १.२० ४५. करणसाधनेन मानशब्देन सारूप्यलक्षणं प्रमाणमभिधीयते ।- न्यायबिन्दुटीका, १.३ पृ० ३० ४६. विषयाधिगतिशात्र प्रमाणफलमिष्यते
स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥-तत्त्वसंग्रह, १३४३
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