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________________ बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा इस प्रकार धर्मकीर्ति की अविसंवादकता अर्थक्रियासामर्थ्ययुक्त वस्तु की प्राप्ति पर निर्भर करती है । इसलिए वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - अर्थक्रिया के अनुरोध से प्रामाण्य की व्यवस्था है। ३७ 1 बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है। उसके अनुसार जो वस्तु इस क्षण में उत्पन्न होती है वह आगामी क्षण में पूर्णतया नष्ट हो जाती है, तथा तत्सदृश अन्य वस्तु उत्पन्न हो जाती है। जिस वस्तु का हम इस समय प्रत्यक्ष कर रहे हैं वह अनन्तरवर्ती क्षण में विद्यमान नहीं रहती है। इस प्रकार धर्मकीर्ति के प्रमाणलक्षण में बाधा खड़ी होती है कि जिस स्वलक्षण वस्तु का इस क्षण प्रत्यक्ष हो रहा है, वह उत्तरवर्ती क्षण में प्राप्त नहीं होती है, कोई अन्य ही वस्तु दूसरे क्षण में प्राप्त होती है, तो फिर प्रश्न उठता है कि अर्थप्रापकता के अभाव में अविसंवादकता कहां रही ? ७४ इस समस्या को धर्मोत्तर ने समझा तथा उसका समाधान खोजने का प्रयास किया । तदनुसार प्रमाण का विषय दो प्रकार का प्रतिपादित किया गया- ग्राह्य एवं प्रापणीय अथवा अध्यवसेय । प्रत्यक्ष प्रमाण का ग्राह्य विषय स्वलक्षण है एवं प्रापणीय अथवा अध्यवसेय विषय प्रत्यक्ष के आधार पर उत्पन्न क्षण संतान है, क्योंकि स्वलक्षण क्षण प्राप्त नहीं किया जा सकता, अतः प्रत्यक्ष का प्रापणीय विषय संतान है । इसी प्रकार अनुमान का ग्राह्य विषय सामान्यलक्षण है, जो अनर्थरूप है, किन्तु उसका अध्यवसेय विषय स्वलक्षण है । स्वलक्षण को प्राप्त कराने से अनुमान भी प्रमाण है। इस प्रकार धर्मोत्तर ने प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाणों के अविसंवादकत्व को ग्राह्य एवं अध्यवसेय विषयों के रूप में प्रस्तुत किया है। ३८ दोनों लक्षणों की परस्पर पूरकता बौद्धों के प्रमाणलक्षण में एक ओर अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहा गया तथा दूसरी ओर अज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा गया, किन्तु ये दोनों प्रमाण -लक्षण एक दूसरे के पूरक बनकर प्रमाण-स्वरूप को प्रकट करते हैं; अन्यथा धारावाही ज्ञान में अविसंवादिता रहने से द्वितीय प्रमाण लक्षण के अनुसार उसे भी प्रमाण मानने का प्रसंग आता है जो दोषपूर्ण है। इसलिए प्रमाणवार्तिक के वृत्तिकार मनोरथनन्दी इन दोनों प्रमाण लक्षणों को परस्पर सापेक्ष प्रतिपादित करते हैं । वे प्रमाण को अविसंवादी मानने के साथ उसे अज्ञातार्थ का प्रकाशक एवं अज्ञात अर्थ का प्रकाशक मानने के साथ उसका अविसंवादी होना आवश्यक मानते हैं । ३९ अज्ञातार्थ प्रकाशकता के बिना सांवृत ज्ञान का ३७. अर्थक्रियानुरोधेन प्रामाण्यं व्यवस्थितम् । - प्रमाणवार्तिक, २.५८ ३८. द्विविधो हि विषयः प्रमाणस्य-ग्राह्यश्च यदाकारमुत्पद्यते, प्रापणीयश्च यमध्यवस्यति । अन्यो हि ग्राह्योऽन्यश्चाध्यवसेयः । प्रत्यक्षस्य हि क्षण एको ग्राह्यः । अध्यवसेयस्तु प्रत्यक्षबलोत्पन्नेन निश्चयेन सन्तान एव । सन्तान एव च प्रत्यक्षस्य प्रापणीयः । क्षणस्य प्रापयितुमशक्यत्वात् । तथानुमानमपि स्वप्रतिभासेऽनर्थेर्थाऽध्यवसायेन प्रवृत्तेरनर्थग्राहि । स पुनरारोपितोथों ग्राह्यमाणः स्वलक्षणत्वेनावसीयते यतः ततः स्वलक्षणमध्यवसितं प्रवृत्तिविषयोऽनुमानस्य । अनर्थस्तु ग्राह्यः । - न्यायबिन्दुटीका, १.१२, पृ० ७०-७२ । ३९. नन्वविसंवादादेवाज्ञातार्थप्रकाशो ज्ञातव्यः, अन्यथा पीऩशंखज्ञानमपि प्रमाणं स्यात् तथा चाविसंवादित्वमेव प्रमाणमस्तु किमनेनाभिहितेन ? नन्वविसंवादिभ्योऽज्ञातार्थप्रकाशकं ज्ञायते, न तु ज्ञानत्वादिभ्य इति पूर्वस्यापेक्षणीयता लक्षणेन, न तु परेषामिति विशेषः ? यद्येवम् तदा विसंवादित्वेऽप्यज्ञातार्थप्रकाशनमपेक्ष्यते एव नान्यथा सांवृतस्य निरासः शक्यः कर्तुम् । तस्मादुभयमपि परस्परसापेक्षमेव लक्षणं बोद्धव्यम् । ।—- प्रमाणवार्तिक (म०न०), पृ० ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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