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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
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दुर्वेकमिश्र ने धर्मोत्तर की व्याख्या को पुष्ट करते हुए कहा है कि प्रवृत्तिविषयकवस्तु का प्रापक या अविसंवादक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और वही प्रमाण है।३०
इस प्रकार ज्ञान अर्थ का प्रकाशक मात्र नहीं ,अपितु प्रवर्तक या अविसंवादक है । यही प्रथम लक्षण से द्वितीय लक्षण का सूक्ष्म भेद है । दूसरा स्थूल भेद अनधिगत पदके ग्रहण न करने से संबद्ध प्रतीत होता है ,किन्तु धर्मकीर्ति के मत में भी दिइनाग की भांति प्रमाण अधिगत अर्थ का ग्राही नहीं होता। इसलिए “अज्ञातार्थप्रकाशोवा" वाक्य के द्वारा धर्मकीर्ति प्रमाण को अज्ञात अर्थ का प्रकाशक मानते हैं।
बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष एवं अनुमान इन दो प्रमाणों की कल्पना है। प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण एवं अनुमान का विषय सामान्यलक्षण मान्य है। स्वलक्षण को अर्थक्रियासामर्थ्य से युक्त होने के कारण परमार्थसत् माना गया है तथा सामान्यलक्षण को स्वलक्षण द्वारा अर्थक्रिया कराने से संवृतिसत् कहा गया है।३१ स्वलक्षण के परमार्थ सत् होने से धर्मकीर्ति ने वस्तुतः एक ही प्रमेय स्वलक्षण को अंगीकार किया है,३२ तथापि वे सांव्यवहारिक दृष्टि से सामान्यलक्षण द्वारा भी स्वलक्षण की प्राप्ति कराये जाने से उसको संवृतिसत् मानकर दो विषयों अथवा प्रमेयों का भी कथन करते हैं।३३
प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों अविसंवादक होने से प्रमाण हैं । प्रत्यक्ष तो अर्थक्रियासामर्थ्य से युक्त स्वलक्षण को विषय करने के कारण स्वतः अविसंवादक है ,किन्तु अनुमान की अविसंवादकता उसके द्वारा स्वलक्षण की प्राप्ति कराये जाने पर निर्भर करती है। अनुमान को यद्यपि धर्मकीर्ति प्रान्तज्ञान मानते हैं , तथापि उसे अविसंवादक होने के कारण प्रमाण मानते हैं।३५ वे इसके लिए मणिप्रभा एवं दीपप्रभा का उदाहरण देते हैं कि कोई पुरुष मणिप्रभा एवं दीपप्रभा को 'यह मणि' है इस प्रकार समझकर उनकी ओर दौड़ता है, किन्तु दीपप्रभा एवं मणिप्रभा दोनों ही मणि नहीं है,अतः इन्हें मणि समझने का उस पुरुष का ज्ञान मिथ्या होने से प्रान्त है तथापि मणिप्रभा की ओर दौड़ने पर पुरुष को मणि की प्राप्ति हो जाती है। अतः वह ज्ञान प्रान्त होने पर भी अविसंवादक होता है। इसी प्रकार सामान्यलक्षणविषयक अनुमान से जब अर्थक्रियासमर्थस्वलक्षण की प्राप्ति होती है तो अनुमान भी संवादक होने से प्रमाण कहा जाता है। ३०. अविसंवादकं प्रवृत्तिविषयवस्तुप्रापकं सम्यग्ज्ञानमिति ।-धर्मोत्तरप्रदीप, पृ० १७ ३१. अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्र परमार्थसत्। ___ अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्तं, ते सामान्यस्वलक्षणे ।।-प्रमाणवार्तिक, २.३ ३२. मेयं त्वेकं स्वलक्षणम्।-प्रमाणवार्तिक, २.५३ ३३. तस्मादर्थक्रियासिद्धेःसदसत्ताविचारणात् । ___तस्य स्वपररूपाभ्यां गतेयद्वयं मतम् ।।-प्रमाणवार्तिक, २.५४ ३४. अयथाभिनिवेशेन द्वितीया प्रान्तिरिष्यते ।-प्रमाणवार्तिक, २.५५ ३५. अभिप्रायाऽविसंवादादपि प्रान्तेःप्रमाणता ।-प्रमाणवार्तिक २.५६ ३६. मणिप्रदीपप्रभयोमणिबद्धयाभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ।।-प्रमाणवार्तिक २.५७
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