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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
सकता है, जिसके अनुसार अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है। बौद्ध प्रमाणशास्त्र में यह लक्षण सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सांव्यावहारिक है । अविसंवादी का अर्थ यहां अभ्रान्त नहीं है,क्योंकि धर्मकीर्ति के मत में भ्रान्त ज्ञान भी कदाचित् अनुमान के रूप में प्रमाण होता है । वे अविसंवादी शब्द की व्याख्या करते हुए अविसंवादन का अर्थ अर्थक्रियास्थिति करते हैं ।२५ अर्थक्रियास्थिति का अर्थ है अर्थप्रापण की योग्यता। अविसंवादकत्व की विस्तृत व्याख्या धर्मकीर्ति के टीकाकार धर्मोत्तर ने की है,जो नीचे प्रस्तुत है।
धर्मोत्तर कहते हैं कि लोक में जिस प्रकार पूर्व प्रदर्शित वस्तु को प्राप्त करा देने वाला पुरुष संवादक कहलाता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने द्वारा प्रदर्शित (अवबोधित) अर्थ को प्राप्त कराने के कारण संवादक कहा जाता है । यहां प्राप्त कराने का अर्थ प्रदर्शित अर्थ में प्रवर्तक होना है,क्योंकि ज्ञान वस्तु को उत्पन्न करके उसे प्राप्त नहीं कराता,अपितु प्रदर्शित अर्थ में पुरुष को प्रवृत्त करता है। यही ज्ञान की प्रापकता,प्रकाशरूपता या ज्ञापकता है। प्रवर्तक होने का अर्थ भी यह नहीं कि ज्ञान पुरुष को हठात् प्रवृत्त करता है ।२६ संक्षेप में कहें तो प्रवृत्ति के विषय का बोध कराने वाला ज्ञान प्रमाण होता है । यह अर्थक्रिया में समर्थ वस्तु का प्रदर्शक होता है।
धर्मकीर्ति के टीकाकार प्रज्ञाकरगप्त ने अर्थक्रियास्थिति की व्याख्या करते हुए कहा कि अग्नि आदि अर्थ में दाह,पाक आदि क्रिया निष्पत्ति का अविचलित रहना अविसंवादन है ।२७ अर्थात् अग्नि में जिस अर्थक्रियाकारित्व का ज्ञान हुआ है वह यदि प्राप्तिकाल में विचलित नहीं हो तो वह ज्ञान अविसंवादक होने से प्रमाण है । प्रमाणवार्तिक के वृत्तिकार मनोरधनन्दी के मत में उपदर्शित अर्थ के अनुरूप क्रिया की स्थिति होना अविसंवादकता है और यही प्रमाणयोग्यता है,क्योंकि ज्ञान से अर्थ को जानकर भी पुरुष प्रवृत्त नहीं होता है एवं प्रवृत्ति करता हुआ भी प्रतिबन्ध आदि के कारण अर्थक्रिया को प्राप्त नहीं करता है, तथापि उपदर्शित अर्थ का ज्ञान प्रमाणयोग्यता रूप अविसंवादकता के प्राप्त होने से प्रमाण होता है ।२८ मनोरथनन्दी के अनुसार प्रमाण का यह अविसंवादित्व लक्षण बाह्यार्थ को स्वीकार करने वाले बौद्धों तथा विज्ञानवादी बौद्धों दोनों में समान रूप से लागू हो जाता है ।२९ २५. अर्थक्रियास्थितिः अविसंवादनम्।- प्रमाणवार्तिक, १.३ २६. लोके च पूर्वमुपदर्शितमर्थ प्रापयन् संवादक उच्यते । तवज्ज्ञानमपिस्वयं प्रदर्शितमर्थ प्रापयत् संवादकमुच्यते । प्रदर्शिते
चार्थे प्रवर्तकत्वमेव प्रापकत्वम्, नान्यत् तथाहि-न ज्ञानं जनयदर्थं प्रापयति अपित्वर्थे पुरुषं प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम्। प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव । न हि पुरुष हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम् ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१
पृ०१० २७. अर्थस्य दाहपाकादेः क्रियानिष्पत्तिस्तस्याः स्थितिरविचलनमविसंवादनं व्यवस्था वा । —प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ० ४.४ २८. यथोपदर्शितार्थस्य क्रियायाः स्थितिः प्रमाणयोग्यता अविसंवादनम् । अतश्च यतो ज्ञानादर्थ परिच्छिद्यापि न प्रवर्तते, प्रवृत्तो
वा कुतश्चित् प्रतिबन्धादेरर्थक्रियां नाधिगच्छति, तदपि प्रमाणमेव, प्रमाणयोग्यतालक्षणस्याविसंवादस्य सत्त्वात् । -
प्रमाणवार्तिक (म०न०), १.३, पृ०४ २९. एतच्चाविसंवदनं बाह्याथेंतरवादयोः समानं प्रमाणलक्षणम्। विज्ञाननयेऽपिसाधननिर्मासज्ञानान्तरम
क्रियानि सज्ञानमेव संवादः।-प्रमाणवार्तिक (म०न०), १.३, पृ. ४
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