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प्रमाण- लक्षण और प्रामाण्यवाद
पूर्व अर्थको विषय करता हो, निश्चित हो, बाधारहित हो, अदुष्ट कारण से उत्पन्न हुआ हो तथा लोकव्यवहार में मान्य हो । २१ श्लोकवार्तिक में कुमारिल ने अन्यत्र ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहा है। २२
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बौद्ध एवं मीमांसकों में पहले अनधिगतार्थगन्तृता को प्रमाण का लक्षण किसने स्वीकार किया, इस विषय में अभी तक स्पष्ट मत सामने नहीं आया है। श्वेरबात्स्की, आदि विद्वान् इस विषय में मौन हैं, किन्तु डी. एन. शास्त्री का मत है कि संभवतः बौद्ध प्रभाव से मीमांसकों ने उनके प्रमाणलक्षण में अनधिगतार्थगन्तृता को स्थान दिया है । २३ उनका यह मत उचित प्रतीत होता है, क्योंकि शबरस्वामी तक मीमांसादर्शन में प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही नहीं कहा गया है। प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही अथवा अज्ञातार्थज्ञापक कहना बौद्ध तत्त्वमीमांसा में उपयुक्त प्रतीत होता है, किन्तु मीमांसा दर्शन में जहाँ प्रमेयार्थ क्षणिक नहीं है, तथा धारावाही ज्ञान को भी जहाँ प्रमाण माना गया है, वहाँ अनधिगतार्थग्न्तृता को प्रमाणलक्षण मानना असंगत है । यही कारण है कि प्रमाण के अनधिगतार्थगन्तृत्व लक्षण का खण्डन नैयायिकों एवं जैनदार्शनिकों द्वारा प्रायः मीमांसकों को लक्ष्य करके ही किया गया है, बौद्धों को लक्ष्य करके नहीं ।
बौद्धों की अपेक्षा मीमांसकों को लक्ष्य करके प्रमाण की अनधिगतार्थगन्तृता का खण्डन करने के अप्राङ्कित अन्य मुख्य कारण प्रतीत होते हैं - (१) धर्मकीर्ति के द्वारा प्रमाण का एक अन्य लक्षण “अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है” (प्रमाणवार्तिक, १.३) दिये जाने पर बौद्ध प्रमाणशास्त्र में वह मुख्य लक्षण के रूप में प्रतिष्ठित हो गया तथा अज्ञातार्थज्ञापकत्व लक्षण संभवतः गौण हो गया, जबकि मीमांसा दर्शन में इसे प्रारम्भ से अन्त तक समानरूपेण महत्त्व दिया गया । (२) मीमांसक एक ओर अनधिगतार्थगन्तृ ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तो दूसरी ओर धारावाहिक ज्ञान में भी प्रामाण्य प्रतिपादित करते हैं, जो पारस्परिक विरोध की प्रतीति कराता है । बौद्धों के यहां योगिप्रत्यक्ष के प्रमाता के अतिरिक्त किसी के भी धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार नहीं किया गया, अतः उनके अज्ञातार्थज्ञापकत्व में पारस्परिक विसंगति नहीं थी । (३) बौद्ध दर्शन निरंश क्षणिकवादी है, जिसके अनुसार प्रत्येक भावी क्षण अनधिगत ही रहता है । अतः उनकी तत्त्वमीमांसा में क्षणिकवाद का खण्डन करना प्रथम आवश्यकता थी। क्षणिकवाद का खण्डन करने पर ही अज्ञातार्थज्ञापकत्व - लक्षण का खण्डन संभव था, अतः भारतीयदर्शन में क्षणिकवाद का खण्डन प्रचुररूपेण किया गया है, जबकि उनके प्रमाण लक्षण के अनधिगतार्थज्ञापकत्व या अज्ञातार्थप्रकाशकत्व स्वरूप का कम । द्वितीय लक्षण
द्वितीय प्रकार में धर्मकीर्ति के द्वारा निरूपित प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् लक्षण को रखा जा
२१. तत्रापूर्वार्धविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥
२२. तत्र व्यापाराच्च प्रमाणता । - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र, ६१
23. The Purva Mimamsa definition seems to have been adopted under the influence of the Buddhist whose definition is identical with it. २४. प्रमाणवार्तिक, १.३
Critique of Indian Realism, p. 471
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