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________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद जैन दार्शनिकों का मत है कि ज्ञान स्वप्रकाशक हुए बिना पर प्रकाशक नहीं हो सकता तथा पर प्रकाशक होने के साथ उसका स्वप्रकाशक होना नितान्त आवश्यक है। यही कारण है कि समस्त जैन दार्शनिक प्रमाण को स्व एवं बाह्य अर्थ दोनों का निश्चायक ज्ञान मानते हैं।६९ समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में स्व एवं परके अवभासक या प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा है । सिद्धसेन न्यायावतार में स्वपराभासी एवं बाधविवर्जित ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। सिद्धसेन के वार्तिककार शान्तिसूरि ने आभासी शब्द का अर्थ व्यवसायक या निश्चायक किया है ।७२ इस प्रकार सिद्धसेन के मत में स्व एवं बाह्य अर्थ का निश्चायक तथा बाधारहित ज्ञान प्रमाण है। सिद्धसेन के प्रमाणलक्षण में बाधविवर्जित पद मीमांसकों के प्रसिद्ध प्रमाणलक्षण से साम्य रखता है ।७३ ___ अकलङ्क के एक प्रमाणलक्षण पर बौद्धों का प्रभाव है । अकलङ्कने अष्टशती में प्रमाणलक्षण का निरूपण करते हुए कहा है कि अनधिगत अर्थ का ज्ञान कराने के कारण अविसंवादक ज्ञान प्रमाण है।" बौद्ध दार्शनिकों ने इन दोनों प्रमाणलक्षणों का पृथक् पृथक् निर्देश किया है किन्तु अकलङ्क ने उन दोनों का समन्वय करके अविसंवादकता को प्रमाण का मुख्य लक्षण बनाया है तथा अनधिगतग्राहिता को उसका हेतु प्रतिपादित किया है। अनधिगतविषय के ग्राहक ज्ञान को प्रमाण की विशेषता मानना अकलङ्कके मौलिक चिन्तन का परिणाम नहीं ,अपितु तत्कालीन बौद्ध दार्शनिकधारा का प्रभाव है । तत्त्वार्थवार्तिक में स्वयं अकलङ्कने प्रमाण को अनधिगत मानने का खण्डन किया है।७६ क्षणिकवादी एवं प्रमाणविप्लववादी बौद्धों की तत्त्वमीमांसा व प्रमाणमीमांसा में अनधिगत अर्थ के ग्राहक ज्ञान का प्रमाण होना उपयुक्त हो सकता है ,किन्तु नित्यानित्यवादी एवं प्रमाणसंप्लववादी जैन दार्शनिकों के मत में नहीं। जैनन्याय के प्रतिष्ठापक अकलङ्क द्वारा अनधिगतमाही ज्ञान को प्रमाणलक्षण में स्थान देने का परिणाम यह हुआ कि विद्यानन्दको छोड़कर अन्य दिगम्बरजैन दार्शनिक प्रमाणलक्षण में अपूर्व, अनधिगत आदि शब्दों का ग्रहण करते रहे । माणिक्यनन्दी पर इसका स्पष्ट प्रभाव है । वे स्व एवं अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। प्रभाचन्द्र ने प्रमाण ६९. (१) यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुःस्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्य चैतदभ्युपगन्तव्यम् । सर्वार्थसिद्धि, १.१० पृ.६९ । (२) को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् । प्रदीपवत् । परीक्षामुख, १.११-१२ (३) कः खलु ज्ञानस्यालम्बनं बाह्यं प्रतिभातमभिमन्यमानस्तदपि तत्प्रकारकं नाभिमन्येत ? मिहिरालोकवत् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक , १.१७ । ७०. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।-स्वयम्भूस्तोत्र, ६३ । ७१. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।-न्यायावतार, १ ७२. अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम् ।-न्यायावतारवार्तिक, ३ ७३. तुलनीय, यही अध्याय, पादटिप्पण २१ एवं ७१ । ७४. प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । अष्टशती, अष्टसहस्त्री, पृ० १७५ । ७५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण ७ एवं २४ । ७६. द्रष्टव्य, आगे इसी अध्याय में बौद्धों के प्रथम प्रमाणलक्षण का खण्डन , पृ.८२ ७७. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।- परीक्षामुख,१.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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