________________
समाधिमरण
मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही । व्यक्ति आत्महत्या या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या फिर आत्मसम्मान या. हितों को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन से निराश हो जाने पर करता है, लेकिन ये सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएं हैं, जबकि समाधिमरण तो चित्त की समत्व अवस्था है। अतः उसे आत्महत्या नहीं कह सकते। दूसरे, आत्महत्या या आत्मबलिदान में मृत्यु को निमन्त्रण दिया जाता है। व्यक्ति के मन में मरने की इच्छा छिपी रहती है, लेकिन समाधिमरण में मरण की इच्छा का नहीं रहना ही अपेक्षित है, क्योंकि समाधिमरण के प्रतिज्ञासूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्ममरण करूँगा । यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती तो उसके प्रतिज्ञासूत्र में इन शब्दों को रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। आत्महत्या में व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊबकर जीवन से भागना चाहता है। उसके मूल में कायरता है, जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता है । समाधिमरण में जीवन से भागने का प्रयास नहीं किया जाता है, वरन् जीवन की संध्या बेला में द्वार पर खड़ी मृत्यु का स्वागत किया जाता है है । आत्महत्या में जहाँ जीवन से भय होता है, समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय ही मृत्यु का आमन्त्रण है, जबकि समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल में या तो भय होता है या कामना होती है, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों की ही अनुपस्थिति आवश्यक होती है। १०३
८६
काका कालेलकर समाधिमरण और आत्महत्या के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्महत्या में व्यक्ति निराश होकर कायरतापूर्ण ढंग अपनाकर देहत्याग करता है, वहीं दूसरी ओर जब व्यक्ति यह सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही तब वह आत्म-साधना के लिए समाधिमरण करता है अर्थात् समभावपूर्वक शरीरत्याग करता है । अत: आत्महत्या जहाँ कायरतापूर्वक और जीवन से भागने का नाम है, वहीं समाधिमरण साहसपूर्वक जीवन जीने और अन्तिम समय में समत्वभाव से मृत्युवरण करने का नाम है।
समाधिमरण और आत्महत्या को एक समझकर कुछ विद्वानों ने समाधिमरण पर यह आक्षेप लगाया है कि यह अनैतिक एवं जीवन से पलायन करनेवाला व्रत है। डॉ० ईश्वरचन्द्र ने लिखा है१५- "जीवन्मुक्त व्यक्ति का स्वेच्छामरण आत्महत्या नहीं है, लेकिन समाधिमरण आत्महत्या के समान ही अनैतिक है। इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छामरण का व्रत लेनेवाले सामान्य जैन मुनि जीवन्मुक्त एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org