________________
समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप
व्यक्ति सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं करता है। उसका मन सांसारिक वस्तुओं और भोगविलासों में लगा रहता है। अपने परिवार और मित्र के प्रति उसके मन में प्रीति रहती है। इस तरह राग से युक्त होकर मन में संक्लेश रखते हुए वह अशान्त मन से अपना देहत्याग करता है। अस्तु समाधिमरण और आत्महत्या में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ समाधिमरण में शान्तभाव से, राग से मुक्त होकर देहत्याग किया जाता है, वहीं आत्महत्या में अशान्त चित्त और रागयुक्त होकर देहत्याग किया जाता है।
समाधिमरण और आत्महत्या करने के लिए जो विधि अपनायी जाती है उसमें भी अन्तर है। समाधिमरण में विषपान, फांसी, जलसमाधि आदि हिंसक प्रवृत्तियों की सहायता नहीं ली जाती है। इसके लिए व्यक्ति अनशन व्रत का सहारा लेता है। पहले वह कुछ समय के लिए अनशन करता है तथा बाद में अनशन काल में वृद्धि करता जाता है। वह ठोस आहार की जगह तरल आहार ग्रहण करने लगता है तथा बाद में तरल आहार का भी त्याग कर देता है। वह अपना समय धार्मिक कार्यों को संपन्न करने में व्यतीत करता है । उसे मृत्यु आगमन की प्रतीक्षा में शीघ्रता या दीर्घता की कामना नहीं होती है, बल्कि वह मृत्यु की प्रतीक्षा शान्तभाव से करता है। मृत्य काल आने पर समस्त प्रकार के संवेगों से मुक्त होकर समभावपूर्वक उसे ग्रहण करता है।३०१ लेकिन आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति हिंसक प्रवृत्तियों को अपनाता है। देहत्याग के लिए वह अनशन व्रत का पालन नहीं करता है। वह शीघ्र मृत्यु की कामना करता है और इसी कारण शस्त्र, विष, अग्नि, जलप्रवेश आदि साधनों का सहारा लेता है। मृत्यु के समय उसका मन संवेगों से पूर्ण होता है अर्थात् वह समभावपूर्वक मृत्यु का वरण नहीं करता है।
समाधिमरण के द्वारा जो देहत्याग किया जाता है वह न दुःखदायी होता है और न ही समाज के लिए अभिशाप, क्योंकि इस तरह से मृत्यु ग्रहण करने के पूर्व व्यक्ति अपने समस्त कार्मिक बन्धनों, ममत्व आदि का त्याग कर देता है। उनका यह देहत्याग धर्म में अविश्वास पैदा करता है। उनकी मृत्यु पर शोक या संवेदना नहीं व्यक्त की जाती है। सर्वत्र इसे महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। समाधिमरण करनेवालों को दिव्य आत्मा समझकर उसकी पूजा की जाती है।१०२ दूसरी ओर आत्महत्या करनेवालों को समाज के लिए अभिशाप समझा जाता है, क्योंकि व्यक्ति इसे पूर्णरूप से अपने आवेश की पूर्ति के लिए अपनाता है, जिससे समाज में क्षोभ और अपमान की भावना व्याप्त होती है। साथ ही इससे समाज को किसी तरह की सात्विक प्रेरणा भी नहीं मिलती है।
- जैन धर्म-दर्शन के अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान् जिनशासन गौरव डॉ० सागरमल जैन समाधिमरण और आत्महत्या के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं समाधिमरण न तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org