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समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है तो वे ओसण्ण कहलाते हैं। ऐसे ही संघ से बहिष्कृत संयमियों का मरण ओसण्णमरण है। ओसण्णमरण करनेवाले जीवों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील और संसक्त जीव ओसण्ण कहलाते हैं,क्योंकि ये मोक्ष के लिए प्रस्थान करनेवाले श्रमण संघ से बहिष्कृत होते हैं।६८ ।
(८) बालपंडितमरण - सम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव के मरण को बालपंडितमरण कहा गया है। स्थूल हिंसा आदि से विरत रहने के कारण ये जीव दर्शन और देशचारित्र से पंडित होते हैं, लेकिन सूक्ष्म असंयम से युक्त होने के कारण ये बाल भी होते हैं। अत: ये बालपंडित जीव कहलाते हैं और इनका मरण बाल पंडितमरण६९ कहलाता है।
समवायांग में बालमरण पर चर्चा करते हुए कहा गया है- देशसंयमी पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकवर्ती जीव (मनुष्य) या तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव के मरण को बालपंडित मरण कहते हैं।७०
(९) सशल्यमरण - विभिन्न प्रकार के दोषों से युक्त मनवाले जीव अपने दोषों की आलोचना किए बिना ही मरण करते हैं, उनके मरण को ही सशल्यमरण के नाम से अभिहित किया जाता है। यह मरण संयत, संयतासंयत और अविरत सम्यग्दृष्टि का होता है।' दोष विभिन्न प्रकार के हैं- मोक्षमार्ग का दोष लगना, मिथ्यामार्ग का कथन करना, मान कषाय से प्रेरित होकर अच्छे कुल की कामना करना, क्रोधावेश से प्रेरित होकर शत्रु के अहित की कामना करना, व्रत के फल के रूप में इस भव और पर भव में अच्छे भोग की प्राप्ति की कामना करना आदि।
समवायांग में सशल्यमरण को ही अन्तःशल्यमरण माना गया है। इसके अनुसार मन के भीतर किसी प्रकार का शल्य (विषयवस्तु) रखकर मरनेवाले जीव के मरण को अन्त:शल्यमरण (सशल्यमरण) कहते हैं। उदाहरणस्वरूप कोई संयमी पुरुष अपने व्रतों में लगे हुए दोषों का लज्जा, अभिमान आदि के कारण बिना आलोचना किए ही मरण करता है तो उसके मरण को सशल्यमरण कहा जाता है।
(१०) बलायमरण (वलम्मरण) - विषय-वासनाओं से मुक्त व्यक्ति बहुत काल से रत्नत्रय का पालन करता आ रहा हो, लेकिन मरते समय उसका ध्यान विषयवासनाओं की ओर आ जाता है और शुभ ध्यान से चूक जाता है तो ऐसे व्यक्ति के मरण को बलायमरण कहते हैं। अत: दर्शनपंडित, ज्ञानपंडित, चारित्रपंडित का भी बलायमरण सम्भव है।३
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