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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप ७५ का उदय तथा क्षय प्रत्येक क्षण होता रहता है। प्रत्येक क्षण होनेवाले मरण को ही अवीचिमरण कहा जाता है। ५६ समवायांग के अनुसार भी प्रति समय होनेवाला मरण अवीचिमरण है। पुनः इसके अनुसार जिस मरण में कोई विच्छेद या व्यवधान न हो उसे अवीचिमरण कहते हैं। इस तरह से हम देखते हैं कि दोनों ही ग्रन्थों में अवीचिमरण का अर्थ प्रतिक्षण होनेवाला मरण ही कहा गया है। अतः दोनों ग्रन्थों में अवीचिमरण की अवधारणा है। (२) तद्भवमरण- भगवती आराधना के अनुसार भवान्तर प्राप्तिपूर्वक उसके अनन्तर पूर्ववर्ती भव का विनाश तद्भवमरण कहलाता है। तद्भवमरण जीव ने अनन्त बार किया है। यह तद्भवमरण दुर्लभ नहीं है, ५८ क्योंकि अनेक जीव जिस योनि या गति का त्याग कर मरते हैं, वे पुन: उसी गति में उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे- मनुष्य का रूप पाकर पुनः मनुष्य रूप में जन्म लेना । समवायांग में तद्भवमरण पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जो जीव वर्तमान भव में जिस आयु का भोग कर रहा है, उसी भव के योग्य आयु को बांधकर यदि मरण करता है तो वह तद्भवमरण कहलाता है। यह मरण मनुष्य या तिर्यंच गतिवाले जीवों को ही प्राप्त होता है। देव या नारकों को यह मरण प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि ऐसा नियम है कि देव या नारकी मरकर पुनः देव या नारकी नहीं हो सकते हैं। उनका जन्म तो मनुष्य या तिर्यंच पंचेन्द्रियों में ही होता है। (३) अवधिमरण- जीव वर्तमान में जैसा मरण प्राप्त करता है यदि आगामी भव में उसी प्रकार का मरण प्राप्त करेगा तो ऐसे मरण को अवधिमरण कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है" - (क) देशावधिमरण - वर्तमान में जैसी आयु का उदय होता है वैसी ही यदि एक देशबन्ध कर जीव मरण को प्राप्त करता है तो वह देशावधिमरण कहलाता है। (ख) सर्वावधिमरण- वर्तमान में जो आयु जैसी प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशों को लेकर उदय में आ रहा है, वैसी ही प्रकृति आदि को लिए हुए यदि पुनः आयुबन्ध करता है और उसी प्रकार भविष्य में उदय होता है तो उसे सर्वावधिमरण कहते हैं। समवायांग" के अनुसार कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुआ आगामी भव की भी उसी आयु को बांधकर मरे और आगामी भव में भी यदि उसी आयु को भोगकर मरता है, तो ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को अवधिमरण कहा जाता है। अर्थात् जो जीव आयु के जिन दलिकों का अनुभव करके मरता है, यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव कर मरे तो वह मरण अवधिमरण कहलाता है। हु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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