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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप है। यद्यपि शरीर इस सन्तुलन को बनाए रखने का प्रयास करता है, लेकिन जब विक्षोभ ज्यादा हो जाता है और शरीर तत्त्वों के संयोग के सन्तुलन को कायम नहीं रख पाता है, उसी क्षण उस शरीरधारी जीव की मृत्यु हो जाती है। तत्त्वों में यह असन्तुलन कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होता है। इस रूप में मृत्यु का होना भी अवश्यंभावी है। संसार की भौतिक वस्तुओं का जिस तरह से नाश होता रहता है, उसी प्रकार से भौतिक तत्त्वों से निर्मित जीवों के शरीर का भी नाश होता रहता है। सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम निर्बाध गति से चलता रहता है। इसी तरह से जन्म-मरण का भी क्रम अपनी निर्बाधता को बनाए रखता है अर्थात् मृत्यु अपरिहार्य है। मृत्यु की अपरिहार्यता को जानकर व्यक्ति को अपने शरीर, धन-सम्पत्ति आदि से जो ममत्व है उसका त्याग कर देना चाहिए। उसे अपना जीवन निर्लिप्त भाव से व्यतीत करना चाहिए। अपने मन में ऐसा विचार करना चाहिए कि संसार की सभी वस्तुएं नश्वर हैं, कोई भी वस्तु अनादि व शाश्वत नहीं है। कभी न कभी उनका विनाश होगा ही। यह कभी भी किसी के पास स्थायी रूप से नहीं रह सकता है। अत: अशाश्वत, छूट जानेवाली वस्तु से किसी प्रकार का मोह करना व्यर्थ है। व्यावहारिक रूप में भी देखा जाता है कि जो वस्तु छूटनेवाली होती है, अपने पास नहीं रह सकती है उसके प्रति व्यक्ति मोह नहीं रखता है। अत: व्यक्ति को ऐसा विचार करके जीवनमृत्यु के भय से मुक्त होकर जीवनयापन करना चाहिए। अगर वह निर्लिप्तता का भाव रख लेता है तो जीवन-मरण के प्रति उसे सुख-दुःख का बोध ही नहीं रहता है। मरण के विविध प्रकार जन्म और मरण दो ऐसे विषय हैं जिन पर अनादिकाल से ही चिन्तन किया जा रहा है। विभिन्न जैनग्रन्थों में मृत्यु के स्वरूप पर विस्तृत विवरण उपलब्ध है। मृत्यु के स्वरूप की चर्चा करते हुए उनमें इसके विभिन्न प्रकारों पर भी प्रकाश डाला गया है। यहाँ हम जैनग्रन्थों के आधार पर मरण के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करेंगे। उत्तराध्ययन में मरण के दो प्रकारों का विवरण मिलता है। वे दो प्रकार हैं(१) अकाममरण और (२) सकाममरण। अकाममरण - अज्ञानतावश विषय-वासनाओं व भोगों में रत रहना, धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करना तथा मिथ्या जगत को सत्य समझकर हमेशा मृत्यु के भय से भयभीत रहना आदि गुण बालजीव के हैं। इन जीवों के मरण को ही अकाममरण या बालमरण कहा जाता है। बाल शब्द का अर्थ मूर्ख, मूढ़ आदि होता है। मृत्यु की शाश्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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