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________________ समाधिमरण जाता है उस समय जीव के सामने रिक्तता और अन्धकार का पाम्राज्य व्याप्त हो जाता है। उससे बचने के लिए वह नाना उपाय करता है, यथा-संगीत सुनना, व्यापार करना, धन संग्रह करना, युद्ध करना आदि। वह अपने मौलिक स्वरूप को भूलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है, लेकिन उसके बचाव के सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं और अन्त में उसकी मृत्यु हो जाती है।२५ मृत्यु एक गहरी सुरंग है जिसमें अन्धकार है, दुर्गन्ध है और एक गम्भीर सन्नाटा है। हमें उसी रास्ते से गुजरना है जिसमें हमारी वासनाओं की प्रेत छायाएँ, दबी हई महत्त्वाकांक्षाओं की जीवित शव यात्राएं, खण्डित व्यक्तित्व की टूटती उल्काएँ, काल भैरव की दहकती ज्वालाएँ हमारी प्रतीक्षा में खड़ी हैं। यही हमारा सही परिवार है, जिसकी हमने बराबर उपेक्षा की है, इससे बचने के लिए हमेशा भागते फिरे हैं, लेकिन इससे बचना सम्भव नहीं है। मृत्युबोध को सही रूप में समझकर हम पलायनवादी रास्ता छोड़ सकते हैं अर्थात् मृत्यु की अनिवार्यता को समझकर व्यक्ति को जीवन और मृत्य दोनों परिस्थितियों में समान भाव बनाए रखना चाहिए।२६ यहाँ विद्वान् लेखक ने मृत्यु की अनिवार्यता पर अपने विचारों के प्रदर्शन के साथ-साथ शांतिपूर्ण मृत्यु प्राप्त करने का सन्देश भी सामान्य जन को दिया है। काका कालेलकर ने अपने चिन्तन में जीवन और मृत्यु को एक समान स्थान दिया है। मृत्यु को उन्होंने जीवन के लिए आवश्यक माना है। उनके अनुसार जीवन और मृत्यु दिन और रात के समान है। जिस प्रकार दिन के बाद रात और रात के बाद दिन के आने का क्रम चलता रहता है, उसी प्रकार जीवन और मृत्यु का क्रम निरन्तर चलता रहता है। मृत्यु और जीवन के क्रम के आधार पर आपने मृत्यु को जीवन के लिए एक शाश्वत कारण माना है। आप कहते हैं कि जिस प्रकार थका मांदा मजदूर विश्राम चाहता है, पका हुआ फल जमीन पर गिरकर नयी यात्रा शुरू करने के लिए वृक्ष से अलग होता है, उसी तरह जीव (व्यक्ति) भी जीवन-यात्रा कायम रखने के लिए मृत्यु प्राप्त करता है।२७ मृत्यु ईश्वर प्रदत्त एक वरदान है। अगर मृत्यु नहीं होती तो क्या होता? इसकी कल्पना ही भयावह है। अनन्त काल तक सिर्फ जीते ही रहना पड़ता तो इससे हम हैरान हो जाते, परेशान हो जाते। कहीं न कहीं तो जीवन का अन्त होना चाहिए। अगर जीवन का कहीं अन्त नहीं होता तो हमारी स्थिति लोककथा के उस राजा के समान होती जिसने अपना राज्य अपने कारण खोया था। कथा कुछ इस प्रकार है-किसी राजा की प्रतिज्ञा थी कि जो भी कहानीकार उसे ऐसी कहानी सुनाए जिसका कभी भी अन्त नहीं हो तो वह अपना राज्य उस कहानीकार को सौंप देगा, अन्यथा कहानीकार को अपने जीवन से हाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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