SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप अरहेन्वर्ग के अनुसार मृत्यु व्यक्ति द्वारा स्वयं उत्पन्न की जाती है। इनके अनुसार मृत्यु एक महान विपत्ति है जो प्रकृति और जीवों के परस्पर टकराव से उत्पन्न होती है। इस प्रकार मृत्यु एक प्रक्रिया है जो जीवों द्वारा स्वयं ही उत्पन्न की जाती है । प्रकृति से टकराव का अर्थ है प्राकृतिक शक्तियों के विरुद्ध कार्य करना और नष्ट-भ्रष्ट हो जाना। उदाहरणस्वरूप अग्नि द्वारा जहाँ हम बहुत से अपने कार्यों को पूरा करते हैं, वहीं अगर दहकती हुई अग्नि की भट्टी या दावानल जैसी किसी चीज में कूद जायें, तो जलकर मृत्यु हो जाती है। यद्यपि यह प्रत्येक स्थिति में नहीं होता है, लेकिन जीव और प्रकृति में टकराव के इस तरह के अन्य कई उदाहरण मिल जाते हैं। प्रो० लुडविग आर० मूलर (Ludhig R. Muller)" के अनुसार मनुष्य जब तक जीवित रहता है, मृत्यु के कारण डरा और सहमा रहता है। इसी तरह के विचार डॉ० फ्रेंक (Frank) के भी हैं। डॉ० फ्रेंक लिखते हैं कि मृत्यु से डरना मानव जीवन की अनिवार्य प्रतिक्रिया है। थॉमस एक्विनों (Thomas Aquino) के अनुसार व्यक्ति मृत्यु से दूर रहना चाहता है और उसके बारे में सोचकर उदास हो जाता है। इन सभी विद्वानों के अनुसार व्यक्ति मृत्यु से डरता है, लेकिन वह क्यों मृत्यु से डरता है इस पर अगर विचार करें तो हम पायेंगे कि प्रत्येक प्राणी मृत्यु को दुःख रूप मानता है। वह इसे जीवन को अन्त करने वाली प्रक्रिया के रूप में देखता है। यही कारण है कि मृत्यु की अवधारणा उसे दुःख और उदास कर देती है। लेकिन उसके दुःखी और उदास होने से मृत्यु उसके पास से नहीं हटती है। कभी न कभी वह उसके जीवन का अन्त अवश्य कर देती है। ई० एच० कोनेल (E. H.Connel) के अनुसार मानव जीवन का अन्त अनिवार्य है और जीवन का यह अन्त मृत्यु के रूप में होता है। २ तात्पर्य यही है कि मृत्यु अपरिहार्य है, इससे नहीं बचा जा सकता है। डॉ० प्रद्युम्न के अनुसार मृत्यु अवश्यंभावी है। संसार में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही तरह से गक्तियों की मृत्यु होती है। लेकिन इन दोनों की मृत्यु में बुनियादी अन्तर होता है। नी 'मृत्यु अनिवार्य है' इस अवधारणा को समझकर मृत्युवरण (इच्छापूर्वक) करके मृत्युंजयी होता है, वहीं अज्ञानी मृत्यु से बचने के लिए छटपटाता है और दुःख का भागी बनता है। मृत्यु जीव के अस्तित्व की एक अत्यन्त वास्तविक स्थिति है। मृत्युकाल आने पर जीव स्व में विलीन होने पर विवश हो जाता है। इसी क्षण उसे स्पष्ट होता है कि स्व ही उसका अपना और असली सहचर है और जिसे वह अन्त तक अपना कहता आया था वह पर है, क्योंकि अन्त समय में उसने मेरा साथ छोड़ दिया। जीवन भर व्यक्ति उसी 'पर' की चाकरी में लगा रहता है, लेकिन मृत्यु की बेला में जब 'पर' का वर्चस्व चूक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy