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समाधिमरण सम्बन्धी जैन साहित्य
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पाँचवें अध्ययन अकाममरणीय एवं ३६ छत्तीसवें अध्ययन जीवाजीवविभक्ति में समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। अकाममरणीय में सकाम या पंडितमरण (समाधिमरण) तथा अकाममरण का विस्तार से वर्णन किया गया है" तो जीवाजीवविभक्ति में उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य सल्लेखना का वर्णन है। इसके साथ ही द्वादशवर्षीय समाधिमरण का भी उल्लेख है। "
दशवैकालिक
मूल आगमों में दशवैकालिक का तीसरा स्थान है। नन्दी में आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद किए गए हैं। दशवैकालिक का उत्कालिक में प्रथम स्थान है। प्रस्तुत आगम में दस अध्ययन हैं और विकाल में पढ़े जा सकते हैं। इसी कारण इसका नाम दशवैकालिक है। इसके रचयिता शयम्भव हैं तथा रचना - काल वीर संवत् ७२ के लगभग है । ३
इसके दूसरे और नवें अध्ययन में ४ उद्देशक हैं, शेष अध्ययनों में उद्देशक नहीं हैं। चतुर्थ व नवम अध्ययन गद्यात्मक तथा पद्यात्मक दोनों रूप में हैं। शेष सभी अध्ययन पद्यात्मक हैं। कुल पद्यों की संख्या ५०९ और चूलिकाओं की ३४ है, जबकि चूर्णियां में पद्यों की संख्या ५३६ और चूलिकाओं की ३३ हैं।"
प्रथम अध्ययन में द्रुमपुष्पिक (धर्मप्रशंसा), द्वितीय में श्रामण्यपूर्वक (संयम और उसकी साधना ), तृतीय में क्षुल्लकाचार, चतुर्थ में षड्जीवनिकाय, पंचम में पिण्डेषणा, षष्ठ में महाचार कथा, सप्तम में वाक्यशुद्धि, अष्टम में आचारप्रणिधि, नवम में विनय समाधि एवं दशम में भिक्षुक के लक्षण एवं उनकी अर्हता का विवेचन किया गया है।
आचार प्रणिधि नामक अष्टम अध्ययन में समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। इस अध्ययन में श्रमणों को पात्र, कम्बल, शय्या, मलमूत्र त्यागने के स्थान, संथारा आसन के प्रतिलेखन की विधि से अवगत कराया गया है। उन्हें सभी प्रकार के परीषहों को सहन करने का सन्देश दिया गया है तथा अपने कषायों को अल्प करके समाधिमरण ग्रहण करने का भी निर्देश किया गया है।
मूलाचार
मूलाचार अचेल मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। मूलाचार के रचयिता कौन हैं यह एक विवादास्पद प्रश्न है । कुछ विद्वानों के अनुसार मूलाचार के रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य *" हैं तो कुछ के अनुसार वट्टकेराचार्य हैं।
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