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समाधिमरण सम्बन्धी जैन साहित्य
यहाँ हम इन सभी ग्रन्थों में समाधिमरण की साधना के विवरण किस रूप में उपलब्ध हैं, इस पर संक्षिप्त चर्चा करेगें ।
(क) प्राकृत भाषा में रचित ग्रन्थों में समाधिमरण
आचारांग
विद्वानों की मान्यता है कि आचारांग में स्वयं भगवान् महावीर के विचार संकलित हैं। गणधर गौतम ने इसे सूत्रबद्ध किया था और इसकी रचना सम्भवत: ईसा पूर्व पाँचवीछठी शताब्दी में हुई, ऐसा माना जाता है। द्वादशांगी में इसका प्रथम स्थान है। यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है। दोनों श्रुतस्कन्धों को मिलाकर इसमें कुल २५ अध्ययन, ८५ उद्देशक और १८ हजार पद हैं। " प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९ अध्याय एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में १६ अध्याय हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।
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आचारांग में मुख्य रूप से मुनि-धर्म का विवरण मिलता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में समाधिमरण की चर्चा है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्याय इस प्रकार हैं- प्रथम अध्यायशस्त्रपरिज्ञा, द्वितीय-लोकविजय, तृतीय- शीतोष्णीय, चतुर्थ- सम्यक्त्व, पंचम - लोकसार, षष्ठ- द्यूत, सप्तम- महापरिज्ञा, अष्टम-1 - विमोक्ष तथा नवम उपधानश्रुत । इनमें से अष्टम में समाधिमरण की साधना की चर्चा है।
अष्टम अध्ययन विमोक्ष के नाम से जाना जाता है। विमोक्ष का अर्थ परित्याग करना या अलग हो जाना है। मुक्ति या निर्वाण प्राप्ति के लिए कर्म का नाश होना आवश्यक है। कर्म के नाश के लिए त्याग आवश्यक है।
इस अध्याय में समाधिमरण के स्वरूप और उसके तीन भेद--- (१) भक्त प्रत्याख्यान, (२) इंगिनीमरण और (३) प्रायोपगमनमरण का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इसके साथ-साथ इसमें समाधिमरण की तीन कोटियों जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट का विवरण भी मिलता है। समाधिमरण के लिए संयम, ज्ञान, धैर्य और निर्मोह नामक चार आवश्यक बातों पर भी प्रकाश डाला गया है । ७
स्थानांग
बारह अंगों में स्थानांग को तृतीय अंग माना गया है। 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों से मिलकर बनने के कारण इसे स्थानांग कहा जाता है। एक से
प्रस्तुत आगम
में
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