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समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ
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करेगी तथा संकटों से बचायेगी । मानव के लिए सबसे बड़ा संकट बुरे कर्मों से बचना तथा मुक्ति को प्राप्त करना है। क्षपक की वन्दना करने से इन दोनों की प्राप्ति होती है। क्षपक की उग्र साधना को देखकर सामान्य व्यक्ति के मन में भी साधनाभ्यास का भाव उठता है, सम्भव है कि वह इस दिशा में प्रयास भी करने लगे। अगर ऐसा होता है तो उसके कर्मों का क्षय भी होता है और उसे मुक्ति की भी प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप में लिखा हुआ है कि पंडितमरण (समाधिमरण) करनेवाला व्यक्ति संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है और मृत्यु पर शासन करता है। संसार के आवागमन से मुक्त होने का अर्थ हैं- जन्म - मृत्यु के प्रवाह से मुक्त होना तथा मृत्यु पर शासन करने का अर्थ है- मृत्यु से डरना नहीं, बल्कि उसे अपने आगे झुकाना । पुन: इसी ग्रन्थ में लिखा है कि समाधिमरण करनेवाला जीव (व्यक्ति) सांसारिक राग-द्वेष से दूर रहता है, हुआ उसे इस लोक और परलोक की चिन्ता नहीं रहती है। वह भगवद् आराधना करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन बिता देता है तथा जीवन के अन्तिम क्षण में आनेवाली मृत्यु की प्रतीक्षा किसी प्रिय मित्र की तरह करता है। जब मृत्यु आती है तो खुशीपूर्वक उसे गले लगाता है।
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समाधिमरण का जैनधर्म में कितना अधिक सम्मान एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है इसका पता तो इसी से चलता है कि प्रत्येक जैन मुनि एवं श्रावक अपनी उपासना के अन्त में यही कामना करता है- मैं समाधिमरण में प्रवृत्त होकर इस मार्ग को सुखपूर्वक पार कर सकूँ। इसके लिए भगवान् ही ( वीतरागदेव) समाधि तथा बोधि (ज्ञान) एवं कल्याणकारी पथ प्रदान करें, जिससे मैं मुक्ति के पथ पर चल सकूँ और मुक्ति प्राप्त कर सकूँ। - अर्थात् समाधिमरग रूपी पथ पर चलकर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। अतः मुक्ति प्राप्ति के लिए समाधिमरण की सफलता आवक है।
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ऐसा विश्वास किया जाता है कि जावन भर जितने भी व्रत एवं तप किए जाते हैं, उनका जितना फल व्यक्ति को प्राप्त होता है उनसे कहीं अधिक फल जीवन के अंतिम क्षणों में समाधिमरण करने से प्राप्त हो जाता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि जीवन भर बुरे कर्मों में लिप्त रहा जाए एवं जीवन के अंतिम क्षण में समाधिमरण अपना लिया जाए। इस तरह से समाधिमरण किया ही नहीं जा सकता। जहाँ तक समाधिमरण के महत्त्व की बात है तो क्षपक की सेवा करनेवालों को भी उसी फल का कुछ अंश प्राप्त हो जाता है, जो फल वस्तुतः क्षपक को प्राप्त होनेवाला है अर्थात् सेवा करनेवाला भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है । किन्तु सेवा करनेवाला स्वार्थवश क्षपक की सेवा करता है, तो उसकी सेवा - भावना फलदायी नहीं होती। लेकिन वह सेवा करने
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