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समाधिमरण
मात्र की भावना से प्रेरित होकर क्षपक की सेवा करता है तो उसकी यह भावना अवश्य फलदायी मानी जा सकती है। इसके अतिरिक्त क्षपक की पवित्र मनोदशा और भावना भी सेवा करनेवालों पर अपना प्रभाव डालती है। क्षपक के आभामण्डल से नि:सरित होने वाली तरंगों को ही इसके लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। ब्राह्मण परम्परा और समाधिमरण
सामान्यतया आत्महत्या और आत्मबलिदान की सहमति ब्राह्मण परम्पग में भी देखने को नहीं मिलती है। इसमें आत्महत्या या आत्मबलिदान को हेय दृष्टि से देखा गया है। लेकिन कछ विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठानों और कुछ विशेष परिस्थितियों में आत्मबलिदान की सहमति प्रदान की गयी है और इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा गया है।
ब्राह्मण परम्परा के धर्म-ग्रंथों में आत्महत्या एवं आत्मबलिदान को पाप माना गया है और इसका निषध किया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति का श्राद्ध नहीं करना चाहिए, साथ ही उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए जल नहीं देना चाहिए।"
यमपुराण में आत्महत्या की निन्दा की गयी है तथा यह निर्देश दिया गया है कि 'आत्महत्या' करनेवाला व्यक्ति यदि मर जाता है तो उसके परिवारवालों पर एक-एक पण का दण्ड लगाना चाहिए। यदि वह मरने से बच जाता है तो शास्त्रों के अनुसार उस पर २०० पण का दण्ड लगाना चाहिए।"
प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में भी आत्महत्या की निन्दा करते हुए इसे पाप माना गया है। आदिपर्व के अनुसार- आत्महत्या पाप है। आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति कभी भी स्वर्ग को प्राप्त नहीं कर सकता है।
धर्मशास्त्र का इतिहास के रचयिता डा०काणे ने सम्वर्तस्मृति के आधार पर आत्महत्या को पाप कहा है और लिखा है कि आत्महत्या करनेवाला क लिए दुःख नहीं करना चाहिए। वह राक्षसों के द्वारा आश्रित होता है और उसी के कुल में पैदा होता है।"
इस प्रकार सामान्यतया ब्राह्मण परम्परा में आत्महत्या की भर्त्सना ही की गयी है, लेकिन कुछ उल्लेख ऐसे भी उपलब्ध हुए हैं जिसमें आत्मबलिदान की प्रशंसा की गयी है तथा उसके प्रति सहमति भी व्यक्त की गयी है।
रामायण में शरभंग मुनि के इच्छितमरण का प्रसंग आया है। शरभंग मुनि ने
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