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________________ १६ समाधिमरण किया। जो जीव समाधि सहित पुण्यमरण प्राप्त करता है, वह निश्चय ही इस माया रूपी संसार के बन्धन को सर्वदा के लिए तोड़ देता है। मोहग्रस्त व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है और बार-बार मरता है। इस तरह वह जन्म-मरण के चक्कर में फँसा रहता है। उसे इससे तब तक मुक्ति नहीं मिलती है जब तक कि वह मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता है, क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता है कि मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव को मुक्ति मिल जाती है। और वह जन्म-मरण के चक्र - प्रवाह से मुक्त हो जाता है। समाधिमरण के द्वारा व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अतः इसी कारण समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति संसार के बन्धन को सर्वदा के लिए तोड़ देता है। • भगवती आराधना के अनुसार समाधिमरण का व्रत लेनेवाला व्यक्ति अपना जीवन सफल करने के साथ-साथ अन्य जीवों का भी जीवन सफल करने में सहायक होता है, क्योंकि क्षपक (समाधिमरण करने वाला व्यक्ति) की सेवा सुश्रुषा करनेवाले व्यक्ति को भी समाधिमरण का फल कुछ अंशों में प्राप्त हो जाता है, जिससे वह भी अपना जीवन सफल कर सकता है। तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति समाधिमरण करनेवाले का दर्शन, वन्दना, पूजा आदि करते हैं वे अपने सभी पापों को कम कर लेते हैं। सम्पूर्ण तीर्थों के तीर्थाटन से जो लाभ उनको मिलाता है वही लाभ क्षपक के दर्शन मात्र से प्राप्त कर लेते हैं। ऋषि, मुनि तथा अन्य सिद्ध पुरुषों की वन्दना करने से जो पाप घटता है, वही क्षपक की वन्दना से भी प्राप्त हो जाता है । अन्त में यही कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति क्षपक की सदा सेवा करता है उस व्यक्ति की साधना, आराधना, पूजा आदि निर्विध्न समाप्त हो जाती है और वह मुक्ति को प्राप्त करता है । ३५ समाधिमरण ग्रहण करनेवाला व्यक्ति कठिन तप कर अपनी क्षुद्र पिपासा को शान्त कर लेता है, अत: उसमें भी देवत्व का भाव आ जाता है। उसकी पूजा - वंदना करने का अर्थ है देवी-देवताओं की पूजा - वंदना करना। ऋषि, मुनि तथा अन्य सिद्ध पुरुष मोक्ष प्राप्ति के लिए कठिन साधना करते हैं। वे सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर देते हैं। इसी कारण वे आम आदमियों से अलग प्रतीत होते हैं तथा समाज में उनका आदरणीय स्थान होता है और लोग उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। समाधिमरण करनेवाला सांसारिक भोग-विलासों को त्याग देता है तथा ऋषि, मुनि की तरह जीवन यापन करता है, बल्कि वह उनकी अपेक्षा एक कदम आगे बढ़ जाता है, क्योंकि समाधिमरण करनेवाला सम्पूर्ण आहार का त्याग करता है, जबकि ऋषि, मुनि तो अल्प आहार लेते हैं। अत: उसकी वन्दना करने से ऋषि, मुनियों की वन्दना करने जैसा ही लाभ प्राप्त होता है। सामान्य व्यक्ति किसी की भी पूजा, अर्चना इसलिए करता है कि पूजित आत्मा उसे मुक्ति प्रदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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