SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ जैनधर्म में समाधिमरण का उद्देश्य देह का विनाश करना नहीं है, अपितु उस स्थिति में जब शरीर का त्याग अपरिहार्य हो गया हो तब उसके पोषण के प्रयत्नों को त्याग करके उसके प्रति ममत्व को दूर कर लेना है, ताकि देहत्याग की वेला में चित्त की समाधि बनी रहे। समाधिमरण का निश्चय चित्त की विकलता को दूर करने के लिए किया जाता है। अतः जैनधर्म में समाधिमरण को साधना का एक अंग माना गया है, जिसकी सहायता से मन में आए विकलता के भाव को दूर किया जा सके। व्यक्ति में सबसे अधिक रागात्मकता अपने शरीर के प्रति ही होती है और शरीर के प्रति यह रागात्मकता समाधिमरण के निश्चय द्वारा ही छोड़ी जा सकती है। इसीलिए समाधिमरण साधना का सर्वश्रेष्ठ रूप माना गया है। सामान्यत: यह भी माना जाता है कि मृत्यु की वेला में व्यक्ति में जिस प्रकार की मनोदशा होती है भावी जीवन की गति भी उसी तरह की ही होती है। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने समाधिमरण के निश्चय को आवश्यक माना है और समाधिमरण को मक्ति का द्वार कहा है। ... राग-द्वेष बन्धन के मूल कारण हैं। इन्हीं के कारण व्यक्ति अपने-पराये के बोध से ग्रसित रहता है तथा संसार के इस भवचक्र में उलझता रहता है, लेकिन समाधिमरण करनेवालों को अपने-पराये तथा सांसारिक वस्तुओं से किसी तरह का लगाव नहीं रहता है। वह निर्लिप्त हो जाता है और निर्लिप्तता की इस स्थिति में जन्म-मृत्यु के भय से ऊपर उठ जाता है तथा जीवन और मृत्यु दोनों ही परिस्थितियों में समभाव बनाए रखता है। उसके मन में बहत ही उच्चकोटि के विचार उठते हैं तथा वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है। मैं किसी काल में इस शरीर का नहीं हूँ। यह देह स्थूल तथा क्षणभंगुर है और मैं स्थिर तथा चैतन्यस्वरूप हूँ। यह शरीर जन्म, जरा, मरण से युक्त है, रोग, आधिव्याधि से घिरा हुआ है। दु:ख या कष्ट इस देह को होता है, मुझे नहीं। संसार में सम्पत्ति या विपत्ति, संयोग या वियोग, जन्म या मरण, सुख या दुःख, मित्र या शत्रु जो कुछ भी होता है वह सभी पूर्व में किए गए पाप-पुण्य का फल है। मैं एक ज्ञायक स्वभाववाला हूँ। उसी का कर्ता, भोक्ता और अनुभवकर्ता हूँ। ज्ञायक का स्वभाव तो अविनाशी है, उसका किसी भी तरह विनाश नहीं होता है। वह तीनों कालों में अबाधित और अचल है। अत: यह शरीर रहा तो क्या? गया तो क्या? इसलिए शरीर पर से पूर्णत: अपने ममत्व का त्याग करता हूँ। मैं समाधिमरण व्रत करके मोक्ष को प्राप्त करना चाहता हूँ। धर्मामृत (सागार) के अनुसार- इस संसार में जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और - अनन्त बार मरण को भी भोगा है, लेकिन जीव ने कभी भी समाधि सहित पुण्यमरण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy