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________________ समाधिमरण समाधिमरण करने से व्यक्ति को वे सभी फल प्राप्त हो जाते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए वह जीवन भर तप, अहिंसादि व्रतों को धारण किए रहता है। व्यक्ति अपनी आत्मशुद्धि के लिए ही जीवन भर कठिन तप एवं ध्यान-साधना में रत रहता है। यही आत्मशुद्धि व्यक्ति को जीवन के अन्तिम क्षण में समाधिमरणपूर्वक शरीरत्याग करने में प्राप्त हो जाती है। विभिन्न शास्त्रों की परिचर्या तथा विद्वानों की संगति और इसी तरह के अन्यान्य कार्य व्यक्ति अच्छे जीवन पाने के लिए करता है, इन सभी की प्राप्ति समाधिपूर्वक शरीरत्याग करने से भी सम्भव हो सकती है। " २९ १४ कठिन तप तथा अहिंसादि व्रत के पालन करने से व्यक्ति सदाचारी होता है। सदाचारी होने के कारण वह कर्मों का संचय अल्प मात्रा में करता है। कर्म कृश हो जाने हैं और समस्त कर्मों के क्षय हो जाने पर यदि वह देहत्याग करता है तो सीधे उसे मुक्ति . की प्राप्ति होती । पुनर्जन्म का हेतु कर्म को माना गया है और समाधिमरण लेने वाला इन कर्मों को कृश करके ही देहत्याग करता है। सामान्यतः व्यक्ति धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपने शरीर का पोषण एवं रक्षण करता है, लेकिन जब उसका शरीर धर्म और आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है और वह बोझ बनने लगता है, तब ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के निमित्त देहत्याग करता है। उसका यह देहत्याग आध्यात्मिक दृष्टि से उचित माना जा सकता है। देवनन्दी ने इसे बड़े ही अच्छे ढंग से समझाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार सोना-चाँदी, खाद्य पदार्थ तथा अन्य इसी तरह की मूल्यवान और उपयोगी वस्तुओं का व्यापार करनेवाले व्यवसायी को उस घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं होता जिसमें उक्त वस्तुएँ रखी हो। यदि कदाचिन् किसी कारणवश उसके विनाश का प्रसंग ( आग, बाढ़) आदि उपस्थित हो जाए तो वह उस घर की रक्षा का पूरा उपाय करता है, लेकिन जब घर-रक्षा का उपाय सफल होता नहीं दीखता है तो घर में रखे हुए बहुमूल्य वस्तुओं को ही बचाने का प्रयास करता है और घर को नष्ट होने देता है । इसी प्रकार व्रत, शीलादि गुणों का अर्जन करनेवाला व्यक्ति इन व्रतादि गुणों के आधारभूत शरीर का पोषण एवं रक्षण आहार द्वारा करता है। दुर्भाग्यवश यदि शरीर के विनाश का कारण (असाध्य रोग तथा अन्य कारण) उपस्थित हो जाता है तो वह उसे दूर करने का यथासम्भव प्रयत्न करता है। लेकिन जब उसको दूर करने में सफल नहीं होता है तो वह बहुमूल्य शीलादि व्रत गुणों की रक्षा करते हुए समाधिपूर्वक शरीरत्याग करता है। " तात्पर्य यह है कि धर्म एवं आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए ही समाधिमरण ग्रहण किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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