________________
समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ जीवन की अन्तिम बेला में साधनाशील आत्मा को चिर शान्ति प्रदान करने का यह एक उत्तम साधन है। जैन संस्कृति में इसे व्रतराज के नाम से भी जाना जाता है। मरणसमाहि प्रकीर्णक'६ में स्पष्टरूप से लिखा गया है कि सामान्य परिस्थिति में व्यक्ति अपने शरीर की रक्षा आहारादि की सहायता से करता है। लेकिन जब उसे यह विदित हो जाता है कि अब यह शरीर आहार आदि लेने से भी ठहरनेवाला नहीं है अर्थात् विनष्ट हो जानेवाला है, तब वह तपादि की सहायता से अपने कषायों को क्षीण करते हुए शरीरत्याग की दिशा में उद्यत होता है। वस्तुत: उसके शरीरत्याग का यह प्रत्यन ही समाधिमरण कहलाता है।
पण्डित आशाधरजी के अनुसार स्वस्थ शरीर भोजन आदि द्वारा पोषण करने योग्य है। निर्बल तथा रोगग्रस्त शरीर औषधियाँ तथा अन्य विधियों द्वारा सेवा करने योग्य है। लेकिन जब शरीर का रोग निरन्तर बढ़ता ही जाए और उसका ठीक होना सम्भव नहीं हो तो व्यक्ति को समाधिमरण व्रत ग्रहण करके शरीर का त्याग करना चाहिए।२७ समाधिमरण का यह व्रत व्यक्ति अपने आत्मधर्म की रक्षा के लिए ही करता है, क्योंकि यह कहा गया है कि शरीर नष्ट होने पर वह पुनः सहजता से प्राप्त हो सकता है, लेकिन धर्म नष्ट होने पर पुन: सहजता से प्राप्त नहीं हो सकता ।२८ तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का शरीर जब किसी रोग के कारण असक्त होने लगे तथा वह अपने कार्यों का सम्पादन स्वयं ठीक से नहीं कर सके किसी भी कार्य के लिए उसे दूसरे की सहायता लेनी पड़े, शरीर भारयुक्त लगने लगे तब वह समाधिमरण कर सकता है। सामाजिक होने के कारण मनुष्य स्वावलंबी नहीं हो सकता है, क्योंकि अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसे समाज के विभिन्न वर्गों का सहायोग लेना ही पड़ेगा। लेकिन कुछ आवश्यक कार्य जैसे दैनिक कार्यों का सम्पादन, धर्माराधना तथा तपाभ्यास आदि के लिए उसे स्वावलंबी होना पड़ता है। यह उसका धर्म भी माना जा सकता है। अत: जहाँ धर्म से पतित होने की बात है तो इसके लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है। अत: व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना चाहिए, अगर किसी कारणवश वह ऐसा नहीं कर पा रहा है तथा दूसरों पर आश्रित है, छोटे से कार्य के लिए भी उसे किसी के सहारे की आवश्यकता है और उस हेतु उसे अपमानित होना पड़ता है, जिससे उसके मन में ग्लानिभाव तथा सेवा करनेवालों के भी मन में क्षोभ उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो प्राणियों को कष्ट होता है। अत: इस परिस्थिति में उचित यही होगा कि व्यक्ति को समभावपूर्वक आहारत्याग करके समाधिपूर्वक देहत्याग का निर्णय कर लेना चाहिए। इससे उसे स्वयं आत्म-सन्तुष्टि होगी तथा दूसरों को भी किसी तरह का कष्ट नहीं होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org