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समाधिमग्ण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ होनेवाले गग, द्वेष, मोह, भय, शोक आदि विकारी भावों को मन से दूर करके अत्यन्त शान्त भाव से और सहजता के साथ प्राणत्याग करना ही समाधिमरण है। महापुराण में कहा गया है कि उत्तम परिणामों में चित्त को स्थिर रखना ही समाधि है।) समाधिमरण की साधना के अनक्रम में जो देहत्याग किया जाता है उस अवस्था में व्यक्ति को अपने चित्त को शुभ परिणामों पर स्थिर रखना ही पड़ता है, अन्यथा मन में विक्षेप आ सकता है और वह राग-द्वेष से घिर सकता है। राग-द्वेष भाव से युक्त देहत्याग समाधिमरण नहीं हो सकता। पण्डितमरण
समाधिमरण का पर्यायवाची शब्द पण्डितमरण भी है। पण्डित शब्द का अर्थ यहाँ ज्ञानी, विद्वान् आदि व्यक्ति के लिए आया है। ज्ञानी व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो जीवन के मूल्यों और हेय-ज्ञेय-उपादेय को जानता हो। वह व्यक्ति दैहिक मूल्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्यों को श्रेष्ठ समझता है। अत: वह देह की बलिवेदी पर भी उच्चआध्यात्मिक जीवन की रक्षा करता है। इस तरह वह विवेकपूर्वक उच्च आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए देह के प्रति निर्ममत्व का भाव रखता है। इसी भाव के वशीभूत होकर वह जो देहत्याग करता है, पण्डितमरण कहलाता है।२० सकाममरण
उद्देश्यपूर्वक स्वेच्छा से मृत्यु को प्राप्त करना सकाममरण है। सकाम का अर्थ यहाँ कामना या आकांक्षा से नहीं है, वरन् किसी विशेष उद्देश्य से है। तात्पर्य है कि व्यक्ति मृत्यु की बेला में अनासक्त भाव से उसे अपना मित्र समझकर गले लगाता है। इसके पीछे उसके मन में किसी तरह का प्रमाद, राग या द्वेष का भाव नहीं रहता है।२१ वह एक सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति को ध्यान में रखकर उद्देश्यपूर्ण मृत्यु ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अर्थपूर्ण या लक्ष्ययुक्त मृत्यु ही सकाममरण है। संन्यासमरण
संन्यास का अर्थ है- ममत्व का त्याग करना। समाधिमरण ग्रहण करने के क्रम में व्यक्ति सांसारिक पदार्थों पर से अपने ममत्व का त्याग करता है। वह अपनी सबसे प्रिय वस्तु शरीर पर से भी अपने ममत्व का त्याग करता है। इस तरह वह पूर्णरूपेण निर्ममत्व भाव से अपने देह का त्याग करता है। संन्यास की अवस्था में भी व्यक्ति पूर्ण निर्ममत्व को अपनाता है। इस प्रकार दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति के मनोभाव समान
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