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________________ २१६ समाधिमरण जीवन से है जो नैतिक मूल्यों के संरक्षण और बहुजन समाज के कल्याण के लिए जिया गया है। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि समाधिमरण कब, क्यों और कैसे लिया जाता है? सबसे पहले समाधिमरण लेनेवाले की योग्यता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि सामान्यतया समाधिमरण लने का अधिकार उन्हीं व्यक्तियों को है जिनका जीवन समाज के लिए भारस्वरूप हो गया हों, जो अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के कार्यों को कर पाने में असमर्थ हो गये हों अथवा जो नैतिक मूल्यों की सुरक्षा या जीवन की सुरक्षा में से कोई एक ही विकल्प रख रहे हो। __ अतः कहा जा सकता है कि जैनों ने समाधिमरण की अवधारणा का जो अर्थ लगाया है वह जीवन से पलायन का नहीं है वरन् जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु को शान्त चित्त और सजगता से आमंत्रण देना है। समाधिमरण न तो जीवन से भागना है और न मृत्यु से, अपितु जीवन को मूल्ययुक्त बनाकर जीना है और आयी हुई मृत्यु का स्वागत करना है। समाधिमरण की प्रक्रिया में उन्हीं तथ्यों पर अधिक बल दिया गया है जिनसे कि जीवन की अन्तिम बेला में शरीर को छूटने अथवा घर, परिजन और प्राप्तव्य के छूटने की पीड़ा व्यक्ति के मनस को व्यथित न करे। वस्तुतः समाधिमरण हमें एक ऐसी जीवन दृष्टि देता है जिसमें व्यक्ति जीवन और मृत्यु दोनों से निरपेक्ष हो जाता है। इस दृष्टि का सुन्दर चित्रण एक शायर ने इस प्रकार किया है--- लाइ हयात आ गए कजा ले चली चले चले । . ना अपनी खुशी आए ना अपनी खशी गए। जैन सन्त और गान्धी जी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है देह थता वर्ते जे देहातीत ते ज्ञानीना चरणमां वंदन हो अनगनि ।। तात्पर्य यह है कि समाधिमरण की साधना का अर्थ जीवन के आकर्षण एवं मृत्यु के भय से ऊपर उठ जाना है। जैन ग्रन्थों में समाधिमरण लेनेवालों के अनगिनत नामों का उल्लेख है। आवश्यकतानुसार यथास्थान इनका वर्णन भी किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से समाधिमरण पर पूर्णरूपेण प्रकाश शिलालेखों के माध्यम से डाला गया है। जहाँ तक . ऐतिहासिक साक्ष्य की बात है तो शिलालेख इस दृष्टि से सबसे अधिक विश्वसनीय एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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