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उपसंहार
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सही माने जाते हैं। इसकी सत्यता पर अधिक विश्वास किया जाता है। कालक्रम की दृष्टि से इसका वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है। प्रथम वर्ग में प्राचीन काल के शिलालेखों तथा द्वितीय वर्ग में मध्यकाल के शिलालेखों को अपने अध्ययन का विषय बनाया है। तृतीय वर्ग में आधुनिक काल में जिन सत्महापुरुषों ने समाधिमरणपूर्वक अपना देहत्याग किया है, उनका वर्णन किया गया है।
इस तरह से हम देखते हैं कि समाधिमरण की परम्परा जैन परम्परा में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही विद्यमान रही है। प्राचीन काल में उसका जितना आदरणीय स्थान था उतना ही आदरणीय स्थान आज भी है, क्योंकि जहाँ अन्य धर्मों में इस तरह की प्राचीन परम्पराओं पर रोक लगा दी गई है, वहीं समाधिमरण बिना रोक-टोक के अविराम गति से अपने पथ पर कायम है। समाधिमरण के अवसर पर महोत्सव मनाने की प्रक्रिया अब भी विद्यमान है तथा जैन समाज में इसका कितना आदर है इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता है।
जहाँ तक यह प्रश्न है कि व्यक्ति को मृत्यु के चयन का अधिकार है या नहीं ? तो कहा जा सकता है कि यदि व्यक्ति को किन्हीं मूल्यों के संरक्षण के लिए जीने का अधिकार है, तो किन्हीं मूल्यों के संरक्षण के लिए उसे मृत्यु का अधिकार भी मिलना चाहिए। व्यक्ति को जीवन का तथा मरण का अधिकार भी मिलना चाहिए। व्यक्ति को जीवन का अधिकार देना, किन्तु मृत्यु का अधिकार छीन लेना उसकी स्वतंत्रता का परिचायक नहीं है। यदि हमें जीने का अधिकार है तो मरने का भी है। किन्तु यह मरने का अधिकार इसलिए नहीं मिला है कि हम अपने सामाजिक दायित्वों और कर्तव्यों से पलायन करें, अपितु इसलिए मिला है कि हम अपने उच्च मूल्यों का भी संरक्षण कर सकें। लेकिन हमें यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि मृत्यु का यह अधिकार केवल उन्हीं लोगों को दिया गया है जो जीवन और मृत्यु के मूल्य को समझते हैं। जिन्हें जीवन के आदर्शों के साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का भी बोध है। यही कारण है कि जैन विचारकों ने कभी भी मृत्यु को ज़ीवन से पलायन के लिए आमन्त्रित नहीं किया, उन्होंने तो मृत्यु का स्वागत किया है।
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