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________________ उपसंहार २१५ की सम्भावना धूमिल हो गई हो और उसमें आगे सड़ान्ध बनने को सम्भावना प्रबल हो तो ऐसी स्थिति में समझदारी इसी में मानी जाती है कि उस विकृत अंग को शेष शरीर से अलग कर दिया जाए। इसी प्रकार वह जीवन जिसमें शरीर एवं शारीरिक मूल्यों के संरक्षण से व्यक्ति और समाज का चरित्र बल क्षीण होता है, सामाजिक विसंगतियाँ बढ़ती हैं तो ऐसी स्थिति में शरीर का त्याग ही उचित है। इसी प्रकार जब नैतिक मूल्यों में या दैहिक मूल्यों में से किसी एक का संरक्षण ही सम्भव हो तो जैन नीति में सल्लेखना की धारा को स्वीकार करते हुए चाहे शरीर का विसर्जन करना पड़े, नैतिक मूल्यों को तो यथावत रखना ही चाहिए। नैतिक मूल्यों का त्याग करके जीवन के संरक्षण की बात जैन दार्शनिकों को मान्य नहीं है। इसीलिए वे समाधिमरण की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। जैन ग्रन्थों में मृत्यु (मरण) के सत्तरह प्रकार बताए गए हैं, किन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि मरण के ये सभी रूप प्रशस्त नहीं हैं। इन विविध रूपों में मरण के प्रशस्त रूप कितने हैं इसकी चर्चा भी पूर्व में की गई है। सामान्य शब्दावली में कहें तो मृत्यु का वही रूप प्रशस्त होता है जहाँ व्यक्ति जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से ऊपर उठकर जीता है या मरता है। एक सदाचारी पुरुष के लिए जीवन और मृत्यु में कोई अन्तर नहीं होता है। किसी उर्दू शायर ने कहा है जीवन मरण एक है जिनको जरा भी ज्ञान । यह इधर का मरतबा वह उधर का ।। वस्तुत: ऐसा व्यक्ति जिसने सार्थक जीवन जिया है वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता है, वह अनुभव करता है कि उसने अपने कर्तव्यों को पूरा किया है, अपने आदर्शों का निर्वहन किया है। अत: चाहे मृत्यु आए या न आए दोनों ही स्थितियों में उसके लिए बहुत बड़ा अन्तर नहीं होता है। जैन विचारक यह भी मानते हैं कि देह का रक्षण तभी तक आवश्यक और उपयोगी है जब तक वह आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के रक्षण में एक साधन के रूप में कार्य करे। यह स्पष्ट है कि जैन आचार्यों की दृष्टि में देह और दैहिक मूल्य साधन ही हैं, वे उन्हें कभी साध्य नहीं मानते। यही कारण है कि जैन दर्शन में समाधिमरण की अवधारणा का इतना खुला एवं सुस्पष्ट रूप मिलता है। जैन आचार्यों ने तो मृत्यु को ही कल्याणकारी माना है। वह व्यक्ति जिसने अपना शरीर नैतिक और आध्यात्मिक मल्यों के संरक्षण के लिए त्याग दिया है, उसकी मृत्यु भी महोत्सव ही होती है। जैनों ने सत्पुरुषों के निर्वाण को भी एक कल्याणक या महोत्सव के रूप में देखा है। मृत्यु तभी महोत्सव बन सकती है जबकि व्यक्ति का जीना सार्थक रहा हो। यहाँ सार्थकता से तात्पर्य ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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