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समाधिमरण
समाधिमरण की प्रक्रिया कुछ विशिष्ट व्यक्तियों और विशिष्ट अवस्थाओं में स्वीकार की गई है, वहीं जैनधर्म में सभी गृहस्थ और मुनियों के लिए इसकी साधना को अपेक्षित माना गया है।
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जहाँ तक जैन साहित्य की बात है तो अधिकतर जैन ग्रन्थों में थोड़ी बहुत चर्चा समाधिमरण के बारे में अवश्य मिलती है। अपने अध्ययन के दौरान हमने जिन जैन साहित्य का अवलोकन किया और उनमें मुझे समाधिमरण से सम्बन्धित जो बातें मिली, उनके आधार पर उसे दो वर्गों में विभाजित किया है। प्रथम वर्ग में उन ग्रन्थों को रखा है जो समाधिमरण की चर्चा अन्य जैन सिद्धान्तों के साथ ही करते हैं। दूसरे वर्ग में उन साहित्य को रखा है जो मुख्य रूप से समाधिमरण की चर्चा करते हैं, लेकिन उनके रचनाकाल का क्रम भिन्न-भिन्न था, इसी कारण यह दो वर्गीकरण सम्भव नहीं हो पाया अतः हमने कालक्रम के अनुसार ही उन्हें स्थान दिया है।
चूँकि मृत्यु सभी के लिए अपरिहार्य है, अत: समाधिमरण की साधना भी सभी के लिए है, चाहे वह व्यक्ति गृहस्थ हो या श्रमण। यद्यपि हमने अपने अध्ययन के दौरान यह पाया है कि समाधिमरण लेने की प्रक्रिया मात्र श्रमण- श्रमणी वर्ग में ही प्रचलित नहीं रही है, अपितु गृहस्थ भी समाधिमरण करते थे और जैनधर्म में उनका स्थान आदरणीय होता था। जहाँ तक समाधिमरण की साधना की बात है तो यह जीवन के आकर्षण और मृत्यु के भय दोनों से ऊपर उठकर शरीर में रहते हुए भी शरीर का अतिक्रमण कर जाना है। यह जीवन और मृत्यु दोनों के प्रति तटस्थ भाव है।
समाधिमरण और आत्महत्या में बहुत बड़ा अन्तर है। दोनों में मरणान्तिक भाव का समावेश होता है। इस कारण बहुत से लोग दोनों को एक समान समझ लेते हैं। वस्तुतः समाधिमरण और आत्महत्या को एक समझना समाधिमरण के स्वरूप से अनभिज्ञता का द्योतक कहा जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि एक जीवन के दुःखों से ऊबकर विक्षुब्ध मनोदशा से जीवन और संसार से पलायन का प्रयत्न है तो दूसरा संसार में होकर भी उससे निर्लिप्त होकर जीना है । सम्भवतः यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि समाधिमरण में तो शरीर के पोषण के समस्त प्रयत्न ही छोड़ दिए जाते हैं, अतः वह तो प्रकारान्तर से मृत्यु का आमन्त्रण ही है। किन्तु जैन आचार्य इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि शरीर के पोषण के प्रयत्न इसलिए नहीं छोड़ दिए जाते हैं कि व्यक्ति मृत्यु को चाहता है, अपितु इसलिए छोड़े जाते हैं कि व्यक्ति का शरीर इस योग्य नहीं रहता कि उसका पोषण किया जाए। जिस प्रकार शरीर का कोई विकृत अंग इस स्थिति में पहुँच जाता है कि उसमें सुधार
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