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उपसंहार
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को स्थान देकर निर्भय हुआ जा सकता है, क्योंकि इन साधनों से युक्त व्यक्ति जब परलोक का पथिक बनता है तो उस समय उसके मन में बार-बार यह ध्वनि गुंज़रित होती है “गहिओ सुग्गई मग्गो नाहं मरणस्स बीहेमि"। अर्थात् मैने सद्गति का मार्ग ग्रहण कर लिया है, जीवन में धर्म की आराधना की है। अब मैं मृत्यु से नहीं डरता, मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है ।
वास्तव में जन्म के विषय में हम अपनी ओर से कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकते। समय, स्थान, कुल आदि सब कुछ देवायत्त भाग्य के अधीन रहता है, किन्तु मृत्यु के विषय में यह नियम इतना कठोर नहीं है। जन्म कहीं भी हो, किन्तु जीवन कैसा बनाना है और मृत्यु के लिए कैसी तैयारी करनी है - यह हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। हम तप, ध्यान आदि के द्वारा जन्म पर न सही, किन्तु मृत्यु पर अधिकार कर सकते हैं। पुरुषार्थ द्वारा जीवन-शुद्धि, मरण- -शुद्धि भी कर सकते हैं और जो मृत्यु संसार के लिए शोक का कारण बनती है, वही मृत्यु हमारे लिए महोत्सव बन सकती है। प्रश्न है कि हम मृत्यु के भय को उल्लास के रूप में किस प्रकार बदलें। बस, यही कला मृत्युकला है। जीने की कला है। जीने की कला सीखना आसान है, किन्तु मृत्यु की कला सीखना कठिन है। हमारे धर्मग्रन्थ जीने की कला के साथ-साथ मरने की कला पर भी पर्याप्त चिन्तन करते हैं। परंतु जहाँ तक मरणकला का प्रश्न है, तो इस दिशा में जैन परम्परा का जितना प्रतिदान है उतना अन्य परम्पराओं का नहीं । जैनशास्त्रों में मृत्यु की कला सिखानेवाली इस अवधारणा को समाधिमरण, सल्लेखना, संथारा आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है, जबकि अन्य परम्पराओं जैसे हिन्दू परम्परा में यह महाप्रस्थान, बौद्ध परम्परा में शिंम्यू, ऐतिशी आदि नामों से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त जौहर, सती, सहमरण, अनुमरण के रूप में भी ऐच्छिक मृत्यु ग्रहण करने की अवधारणा मिलती है। वस्तुतः मृत्यु ग्रहण करने के ये विविध रूप मृत्यु की कला के विभिन्न पक्षों पर अपना दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन धर्म-दर्शन में अपितु सभी भारतीय धर्मों में समाधिमरण की अवधारणा किसी न किसी रूप में स्वीकृत रही है और यह भी सत्य है की जहाँ भारतीय विचारकों ने आत्महत्या का विरोध किया है, वहीं समाधिमरण हेतु अनुमति भी प्रदान की है। फिर भी समाधिमरण के सम्बन्ध में जितनी गम्भीरता से चर्चा जैनधर्म में उठायी गयी है और उसकी एक सुनिश्चित प्रक्रिया अपनायी गयी है वैसी अन्य भारतीय धर्मो में नहीं है। जैनधर्म ही वह भारतीय धर्म है जो समाधिमरण की इस
अवधारणा का एक सर्वांगपूर्ण विवेचन प्रस्तुत करता है। हिन्दू और बौद्ध धर्मों में जहाँ
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