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________________ २१२ समाधिमरण प्रयास किया जाता है। आखिर ऐसा क्यों? एक क्षण पूर्व व्यक्ति अपनी मौत के लिए मिन्नते करता है और दूसरे ही क्षण वह उससे बचने के लिए मिन्नते करता नजर आता है । यह द्वैत क्यों ? इस पर गहनता से चिन्तन की आवश्यकता है। मृत्यु क्या है ? इस विषय पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जो शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्राप्त हुए हैं। उनके सर्वथा क्षीण हो जाने का नाम ही मृत्यु है। जैन मतानुसार दस प्राण बताए गए हैं- आयुष्य, पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, और श्वासोच्छवास-बल। इन दस प्राणों का संयोग जन्म है और इनका वियोग मृत्यु है । जन्म के पश्चात् और मृत्यु के पूर्व प्राणी आयुष्यकर्म का प्रतिक्षण भोग करता रहता है । एक प्रकार से वह प्रतिक्षण आयुष्य की डोरी को काटता रहता है, छोटा करता रहता है। इसी को हम जीवन कहते हैं। वास्तव में यह प्रतिक्षण आयुष्य की डोर का कटना प्राणी की प्रतिक्षण होनेवाली मृत्यु का ही सूचक है। लेकिन मनुष्य इस सत्य से अनभिज्ञ है और जीवन के मोह से संत्रस्त होकर मृत्युरूपी वेदना का क्लेश भोगता रहता है। यह तो निश्चित है कि जन्म के साथ मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है। मनुष्य प्रतिक्षण मरण को प्राप्त करता रहता है। कोई इसे अवीचिमरण कहता है तो कोई नित्यमरण और कोई तद्भवमरण। चाहे यह कितने ही विविध नामों से पुकारा जाए लेकिन इतना निश्चित है कि जिसे हम आयु वृद्धि कहते हैं, वह वस्तुत: वृद्धि नहीं ह्रास है, मृत्यु की ओर बढ़ता हुआ कदम है। मृत्यु का प्रतिक्षण जीवन में अनुभव हो रहा है, हम प्रतिसमय मृत्यु की ओर जा रहे हैं अर्थात् मरण का अनुभव कर रहे हैं। फिर भी हम उससे भयभीत नहीं होते, अतः इसी प्रकार की वृत्ति बनानी चाहिए कि मृत्यु का प्रतिफल देखते हुए भी हम निर्भय बने रहें और ये सोचे कि मृत्यु कोई नई वस्तु नहीं है । मृत्यु से भयभीत होनेवाले व्यक्ति के मन में मृत्यु की भ्रान्त धारणा को ही उत्तरदायी माना जा सकता है। इस सम्बन्ध में विचार करने पर हमारे समक्ष तीन कारण उपस्थित होते हैं - १. जीवन के प्रति आसक्ति, २ . भवान्तर में सद्गति प्राप्त करने योग्य कर्म का अभाव तथा ३. मृत्यु सम्बन्धी भ्रमपूर्ण विचार । अतः हमे मृत्यु से मुक्त होने के लिए मृत्यु सम्बन्धी भ्रमपूर्ण विचारों पर चिन्तन करने के साथ-साथ भयमुक्त होने के लिए सम्यक् प्रयत्न भी करने होंगे। इस मृत्यु भय को दूर करने के लिए हमें सर्वप्रथम उसका स्वरूप समझ लेना होगा कि यह एक प्रकार के वस्त्र परिवर्तन की भाँति ही देह परिवर्तन है। यह एक अवश्यंभावी भाव है- हम प्रतिक्षण मृत्यु की छाया से गुजर रहे हैं, इसलिए उससे डरने की कोई बात नहीं है। जीवन में सत्कर्म, पुण्य, तप-ध्यान योग आदि साधनात्मक साधनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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