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समाधिमरण
की, यही कारण था कि सतीप्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैनधर्म में कभी भी नहीं रही।
___ महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी अपने कुल और परम्परा में सती-प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण उसे अपने निर्णय को बदलना पड़ा, यह इस बात का प्रमाण है कि जैनाचार्यों की दृष्टि सती प्रथा विरोधी थी। जैन परम्परा में ब्राह्मी२५, सुन्दरी२२, द्रौपदी२३, राजिमती२४ आदि को सती कहा गया है और तीर्थङ्करों के नामकरण के साथ-साथ आज भी १६ सतियों का नाम स्मरण किया जाता है। किन्तु इन्हें सती इसलिए कहा गया है कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा। आज जैन साध्वियों के लिए “महासती' विशेषण का प्रयोग होता है जिसका आधार उनका शील पालन ही है। जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखे गये उनमें सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने प्राणत्याग दिये।२५ यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है, किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है। वस्तुत: यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सती प्रथा को लेकर हिन्दू और जैन परम्परा में मूलभूत अन्तर है। हिन्दू परम्परा जहाँ विधवा स्त्री को पति की चिता के साथ जल जाने पर जोर देती है वहीं जैन परम्परा इसका निषेध करता है। यहाँ विधवा स्त्री को भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तथा उन्हें मान-सम्मान देने की भरपूर कोशिश की जाती है। दूसरी तरफ हिन्दू परम्परा में भी विधवाओं को विधवा आश्रम में आश्रय दिया जाता है, लेकिन यहाँ उन्हें उस तरह का मान-सम्मान नहीं मिलता है जिस तरह का जैन श्रमण संघ में जैन स्त्रियों को मिलता है। फलत: हिन्दू विधवायें विधवा आश्रम में शरण नहीं लेना चाहती हैं। दूसरा अन्तर धार्मिक विश्वास से सम्बन्धित है। जैन परम्परा जहाँ कर्म-सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत मुक्ति को मानती है वही हिन्दू परम्परा व्यक्तिगत मुक्ति के साथ-साथ इतर मुक्ति में भी विश्वास करती है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में यह लिखा गया है कि विधवा के सती होने पर मृत पति की मुक्ति, स्वयं की मुक्ति तथा अन्य बन्धु-बान्धवों की भी मुक्ति संभव है, जबकि जैन ग्रंथों में इसका अभाव है। अतः हिन्दू धर्म में सती प्रथा के अधिक प्रचलन का इसे एक सर्वप्रमुख कारण माना जा सकता है।
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