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________________ समाधिमरण एवं ऐच्छिक मृत्युवरण १९३ संयम सद्गुण की रक्षा सम्भव नहीं होने पर मात्र समभाव की दृष्टि से व्यक्ति समाधिमरणपूर्वक अपना देहत्याग कर सकता है। इस तरह हम देखते हैं कि समाधिमरण में जो देहत्याग किया जाता है वह मात्र संयम और धर्म रक्षा के निमित्त ही किया जाता है, क्योंकि उसमें व्यक्ति संयम से पतित होने के कारण अनिवार्य रूप से प्राणान्त करनेवाली स्थिति उत्पन्न होने से प्राणत्याग करता है। तात्पर्य है कि शारीरिक दुर्बलता के कारण शरीर जब अपने कार्यों का सम्पादन नहीं कर पाता है, इसके लिए किसी दूसरे पर आश्रित रहना पड़ता है, जिससे स्वयं को और दूसरों को भी कष्ट होता है, तभी प्राणत्याग किया जाता है। इस स्थिति में व्यक्ति देहत्याग के लिए स्वतन्त्र है, क्योंकि अनुपयोगी और भारयुक्त शरीर को उस स्थिति में ढोना ठीक नहीं है, इससे आध्यात्मिक मूल्यों के खण्डित होने की आशंका रहती है। ऐच्छिक मृत्युवरण का एक वीभत्स रूप सती प्रथा है, जो हिन्दू परम्परा में प्रचलित रहा है इसे सहमरण, सहगमन, अन्वारोहन या अनुभरण आदि के नामों से भी जाना जाता है। सती का सीधा-सादा अर्थ है- पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री का पति की चिता के साथ जिन्दा जलना। इस प्रक्रिया में दो स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं १. पहली स्थिति में विधवा स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध जलाया जाता है या जलने के लिए विवश किया जाता है। सती होने का यह रूप कभी भी प्रशस्त मृत्युवरण नहीं है। इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। २. दूसरी स्थिति में विधवा स्वेच्छापूर्वक अपनी पति की चिता के साथ जल जाती थी। यह ऐच्छिक मृत्युवरण का रूप है। फिर भी इस देहत्याग का क्या औचित्य है, इस पर हमें तुलनात्मक दृष्टि से चि - करना है। सती प्रथा के सम्बन्ध में हिन्दू धर्मग्रन्थों में पर्याप्त चिन्तन हुआ है। इसलिन्डन के आधार पर सती प्रथा से सम्बन्धित हिन्दू धर्मग्रन्थों को तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है क. प्रथम कोटि में वे हिन्दू धर्मग्रन्थ आते हैं, जिन्होंने कभी भी सती प्रथा का समर्थन नहीं किया है। ख. द्वितीय कोटि में वे ग्रन्थ आते हैं जो सती प्रथा का संकेत तो करते हैं, लेकिन सती होना उचित नहीं मानते हैं और सती हो रही स्त्री को पुन: सांसारिक जीवन-जीने का निर्देश देते हैं। , ग. तृतीय कोटि में वे ग्रन्थ आते हैं जो स्पष्टतया सती प्रथा का समर्थन करते हैं और इसकी महत्ता पर भी प्रकाश डालते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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