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________________ १९२ समाधिमरण लगाकर अनशनपूर्वक अथवा शस्त्र की सहायता से देहत्याग करे अथवा उसे प्राणत्याग करने की स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए? यहाँ प्रतिप्रश्न उठ सकता है क्यों नहीं मिलनी चाहिए? अत: इन्हीं बिन्दुओं को केन्द्र में रखकर ऐच्छिकमरण के कुछ प्रसंगों पर आलोचनात्मक चिंतन का प्रयास किया जा रहा है। समाधिमरण और सती प्रथा समाधिमरण और सती प्रथा- इन दो भिन्न परम्पराओं में देहत्याग का ज्वलंत उदाहरण है। अत: इन दोनों के सम्बन्ध में तुलनात्मक विचार अपेक्षित है। समाधिमरण और सती प्रथा देहत्याग की एक ऐसी विधि है जिसमें प्राय: व्यक्ति में देहत्याग की भावना स्वस्फूर्त मानी जाती है। यद्यपि सती प्रथा के प्रत्येक प्रसंग में यह बात नहीं पायी जाती है, इसीलिए रूपकुंवर के सती होने की घटना और उसके नेपथ्य में छिपी हुई मानसिकता को समझकर भारत सरकार ने इस कुप्रथा को पूरी तरह से अवैध माना है। सती प्रथा अब मात्र इतिहास की विषयवस्तु बन गयी है, लेकिन समाधिमरण भी परम्परा अभी भी जीवित है। इन दोनों ही परम्पराओं के पीछे दर्शन और कुछ नैतिक तथ्य अवश्य हैं जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति इन्हें अंगीकार करता है। पं० सुखलाल जी संघवी ने समाधिमरण की स्थिति पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है और इस अनुक्रम में सती प्रथा के समय कोई स्त्री अपना देहत्याग क्यों करती है इसका दृष्टांत भी प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार-जैनधर्म लौकिक या अध्यात्मिक दोनों प्रकार की सामान्य स्थितियों में प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है। लेकिन जब देह (लौकिक) और आध्यात्मिक सद्गुणों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उपस्थित हो जाता है तो ऐसी स्थिति में देहत्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाने का उसी प्रकार निर्णय करना चाहिए जिस प्रकार सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा करती है। यदि देह और संयम दोनों की ही समान भाव से रक्षा सम्भव हो सके तो दोनों की ही रक्षा करना परम कर्तव्य है, परन्तु जब एक की ही रक्षा का प्रश्न आए तो सामान्य व्यक्ति शरीर की ही रक्षा पसन्द करेगा और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेगा, जबकि समाधिमरण का अधिकारी व्यक्ति संयम की रक्षा को महत्त्व देगा। जीवन तो दोनों ही है- दैहिक और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए प्राणान्त या अनशन की अनुमति है। भयंकर विपत्तियों में शरीर की रक्षा के निमित्त संयम से पतित होने के अवसर आने पर या अनिवार्य रूप से प्राणान्त करनेवाली बीमारी हो जाने पर, स्वयं को तथा दूसरों को निरर्थक परेशानी होने पर या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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